कविता-उस पार

kavita us paar

मनीष यादव

मनीष यादव

कविता-उस पार

मनीष यादव

और अधिकमनीष यादव

    मेरे सामने नदी के दूसरे तट पर

    प्रतिदिन साँझ को उसे देखता हूँ

    उकता चुके मन से

    जैसे बैठ जाती है वो हर रोज़

    साँझ की लालिमा के गोते लगाते ही

    कूदकर तैर जाना चाहती है

    और जाना चाहती है इस पार!

    वह तैरना जानती थी

    पर नहीं तैर पाई मन के बोझ को लेकर

    धरती से सटे नम रेत में

    जैसे उग जाती है कोई दुर्लभ घास।

    वैसे ही अंतिम आस लिए दे रही थी

    आख़िरी पुकार अपने प्रेमी को

    नदी के पार भागा उसका प्रेमी मैं नहीं था,

    और ही था मैं उसके अगहन मास के विवाह का दु:ख।

    मैं था तो सिर्फ़

    हर शाम उसके सोहर के गीतों को सुनने वाला

    नदी के इस किनारे बैठा मौन दर्शक

    अब वह नहीं आती किसी साँझ को

    निश्चित ही उसका विवाह संपन्न हो चुका!

    मेरे मन का कौतूहल

    मुझे उस पार जाने को कहता है

    पर मैं तैरना नहीं जानता!

    हम दोनों

    अपने हिस्से के भ्रम को जीते रहे

    पर कभी हमने अपने मिलन के लिए

    कोई नाव नहीं बनाई...

    क्योंकि हम उस प्रेम में थे

    जिसमें एक-दूसरे को जानते तो नहीं,

    किंतु समझते थे नदी नहीं पार कर पाने का दु:ख॥

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनीष यादव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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