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कविता धिक्कारती है तुम्हें

kavita dhikkarti hai tumhein

अरविंद यादव

अरविंद यादव

कविता धिक्कारती है तुम्हें

अरविंद यादव

और अधिकअरविंद यादव

    जूते के तल्ले की तरह उघड़ते तलवे

    और पीठ पर भविष्य को लादे पथराई आँखें

    जिनमें दम तोड़ती जिजीविषा और साँसें गिनते स्वप्न

    जिन्हें देख यह क़तई नहीं कहा जा सकता

    कि उनकी पद-यात्रा ठीक वैसी थी

    जैसी होती है उन महानुभावों की

    जिनके स्वागत में खड़े रहते हैं जाने कितने चौराहे

    लेकर फूलों के हार

    सड़कें ओढ़ लेती हैं जिनके लिए मख़मली अंबर

    पाकर आगमन की सूचना

    फुटपाथ जिनके अभिवादन में हो जाते हैं पंक्तिबद्ध

    करने को पुष्पवर्षा

    गलियाँ दौड़ पड़ती हैं नंगे पाँव

    लेकर षटरस व्यंजन

    पाने को जिनकी कृपा-दृष्टि

    आज सूरज के थपेड़ों से उदास

    क्रोधाग्नि में जलती वह सड़क

    जिस पर आशा की एक बूँद

    और एक निवाले को मोहताज

    अस्तित्व के लिए संघर्षरत जीवन

    जिसे पत्थर बन देखता वह शहर

    शहर की संवेदनहीन गलियाँ और फुटपाथ

    जिन्हें लगता है मार गया लकवा 

    तो सुनो

    तुम्हें कोई धिक्कारे 

    या धिक्कारे

    कविता धिक्कारती है तुम्हें

    तुम्हारी संवेदनहीनता पर

    तुम्हारे दोहरे चरित्र पर‌।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अरविंद यादव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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