कवि-पत्नियाँ
सबसे आख़िर में आता है उनका नाम
कवियों की स्मृतियों में।
समर्पित हो चुकी होती हैं अनेक कविता-पुस्तकें
मित्रों, प्रेमिकाओं, आलोचकों, कृपालु अग्रजों
और शुभाकांक्षी संरक्षकों को
तब आती है याद कवियों को उनकी
दर्ज करते हैं वे उनका नाम
अपनी कविता-पुस्तक में
एक अव्यक्त अपराध-भाव से भर कर।
वे अलस्सुबह उठती थीं
बिस्तर बिछाती थीं
खाना पकाती थीं।
कवि लिखते थे कविताएँ।
वे बच्चों को स्कूल पठाती थीं
रात को बत्तियाँ बुझाती थीं
चाय बनाती थीं
अपनी हसरतों को पत्तियों की जगह छानती हुईं
कवि देश, दुनिया, राजनीति और कला पर
बहस करते थे
वे घर की रखवाली करती थीं
कवि यात्राएँ करते थे।
पुरस्कृत होने पर जब कवि दमक उठते थे
सम्मान के प्रकाश में
वे एक ओर खड़ी—
प्रतिबिंबित आलोक के नीम अँधेरे में—
प्रकरांतर से प्राप्त करती थीं
उपलब्धि का सुख।
जब कभी लौटते थे कवि
रण में पराजित योद्धाओं की तरह
आहत और अपमानित हो कर
तब वे उन्हें उनका पौरुष लौटाती थीं।
कभी-कभी, बिल्कुल कभी-कभी,
जब अपने आत्म-मुग्ध संसार से पलट कर
कवियों का ध्यान जाता था उनकी तरफ़—
शायद जब वे दिन भर की थकान से श्लथ देह लिए
बिस्तर पर ढह जाने के बाद
बाँहों से आँखें ढँके
लंबी साँस लेती थीं—
तब कभी-कभी, बिल्कुल कभी-कभी
क्या सुन पड़ता था कवियों को
उनके कुचले हुए सपनों का चीत्कार!
- पुस्तक : कुल जमा-3 (पृष्ठ 24)
- रचनाकार : नीलाभ
- प्रकाशन : शब्द प्रकाशन
- संस्करण : 2012
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