प्रीत

preet

रूप पुजारी प्रीत लिए दहकती-सी

उर में जो गहरी उतरे वह आँच लिए धीमी-सी

मानो आया हो नजद से स्वयं उन्मत मजनूँ ही

मेरा काम है खुले बंदो निकलना और प्रीत को खोजना

गहराइयों में ऊँचाइयों पै मेरा व्यापार मारे-मारे फिरना

मेरा व्यवहार इन्हीं अपने मोतियों का लेना देना

भाग्य से ही मै था एक जलता हुआ अनल

पथरीली धरती से मानो फूटा आता जल

गरज-गरज के चलता हो तूफ़ानों में अनिल

सुख से रहना दुख को सहलाना अब तक कब जाना

दर्शन से ही लाल अगारा नहीं किसी की सुनता

घायल हो हो जब जब सुंदरता की सुन ली गाथा

मेरी देह ने एक ज्वाला जलाई

फिर सहसा लपटें उठ आई

विद्युत सी वह आकाश तक चढ़ आई

क्रमशः जले पद तिमिर के और एक नया प्रकाश हुआ

सत्य के एक झोंकें से मानो आकाश प्रज्वलित हुआ

जीवित रहने के लिए अपना जीवन-रक्त दिया और जीती रही आशा

मैंने भी फिर एक प्रकाश का अनुभव किया और हृदय को चैन मिला

जब मैंने अपने प्रियतम को देखा

स्वीकार करके जब वह रूठ गया

कितना कठिन था मेरे लिए उसको धीरे-धीरे फिर मनाना!

मानो एक नई लंबी यात्रा करना था उसको मनाना

अपना प्यारा यौवन उस यौवन के राजा को देना पड़ा नज़राना

शीश को अपने आसन बना दिया

अश्रु के मोतियों से उसका आँचल भरा

उसके गरेबाँ को अपने रक्त बिंदुओं से जड़ दिया

मेरे उर की वसा बनी फुलैल जो कौशेय कुंतल में मैंने मल दी

'ही' पुष्प की मानो मैंने प्रेम अलक टेढ़ी-टेढी बना ली

जब उसने मेरा जोश निहारा हाड़ के मांस में नवनीत-सी पिघली

जल्दी जल्दी आई वह फिर यौवन-उन्मत्त-सी

नाच-नाच के मानो चरखे की अटेरन-सी

निढाल-सी और दयामयी-सी

फिर मैंने भी ले गोद में उसे गले लगाया।

उसकी छाया देख-देख मैं कुम्हलाया

फिर जब समय ने देखा कि रूप प्रीत का शकुन आया

फिर मन पुष्प खिले शालामारों में

छुटे फ़व्वारे दूध के बाग़ों में

पर्वत के उपर से नाले मचल आए

प्रियतम ने फिर दो झुमकों को तनिक झुलाया

उपवन में से उछल-उछल कर बारादरी पर चढ़ आया

बन की अप्सरा के हाथों दिल के साज का तार कसवाया

लय फिर सितार ने कोकिल से ली

कंद मिसरी झरनों में घुल गई

हब्बा ख़ातून दरबारों में गई

उस सुंदरी को मैंने देखा तो लल्ला ही की जैसी मैंने उसकी रूपरेखा देखी

मैं भी फिर एक उत्साह में गया और 'अरिनि' पुष्प की मैंने माला गूंथी

मानो यूसुफ़ ने घेरा उसको जो रूप की मैना थी

उसके गजरे जैसे मुझे घेरने लगे

जब वह चंद्रमा-सी प्रकट हुई

भाग्य के सारे झगड़े वही मिट गए

बालापन में उस बाला ने फिर क्या-क्या खेल किए

चढ़ घोड़े पर निकली मानो मैदान में चौगान खेलने

नागराज को ही दिखा रही हो हीमाल पैंतरे

उसने रुई कात-कात मानो बारीक तार निकाले

चरखे में से गू-गू करके गुड़िया ने हो सुर निकाले

मेरी ओर फिर उसने देखा झुकी पलक से नज़र उठा के

फिर मैं भी मस्त होकर उसी के धागों से मानो पशमीना बुनने लगा

अपनी उंगलियों के पोर घिसा-घिसाकर उसी के सूक्ष्म तोस में फूल

बुनने लगा

एक चुंबन की भेंट में अपनी आँख की ज्योति लेकर गया

मटक के उसने नए-नए रंग निखारे

मानो चढ़ गई पर्वत-पर्वत और वहीं से मुख के दर्शन कराए

मैं भी फिर एक गड़रिए की भाँति उसके पास गया और उसे ख़बर दी

पहाड़ के पत्थर की ओट में मैं भी चला गया और छिप कर उसे देखने लगा

हरी घाटियों में भटक-भटककर मैंने भी अपनी बंसरी बजाई और एक दुख का राग छेड़ा

अकस्मात फिर उसने भी एक गीत शुरू किया

यह ग्राम ग्राम घूमी और खेत मचल उठे

मानो स्वयं जन्नत की हूर क्यारी को संवारने लगी हो

मैंने भी फिर ग्रीष्म ऋतु और आषाढ़ में श्रम से खेत में से सोना उपजाया

खेत में से ही फिर दोंनों के स्वेद के मोतियों के अंबार लग गए

और ज्यों ही अब चिरकाल के पश्चात यार-यार से मिलने लगा था

उसी समय ईर्ष्या की एक आग भड़क उठी

जिसने दो के बीच में एक नंगी तलवार डाल दी

ईर्ष्या करने वाला दोंनों पर काले नाग की भाँति झपटा

मानो एक जागीरदार खेत की मुंडेर तक मिटा के ले गया और पेड़

तक उखाड़ ले गया

जब मानो साहूकार ने उसके चमकते हुए आँचल से सितारे तक उतार दिए

उस समय अत्याचार के अंधकार से मेरे चंद्रमा को ग्रहण लग गया

प्रातः की पहली किरण पर मानो धुएँ के जाले चढ़ गए

ग्रीष्म ऋतु पर मानो माघ की शीत का अधिकार हो गया

मानो वायु के एक तेज़ झोंके ने दीपक बुझा दिया

मेरी दुलहन के सोने के टीके को पीतल नहीं हो गया क्या?

सावन के 'ही' पुष्प का रजत शरीर माँद पड़ा क्या?

यह अत्याचार देखकर मेरे जिगर में एक कटार चली क्या?

चमक उठी फिर अग्नि मानो स्वय 'लश' लकड़ी से

मानो चढ़ाया अपना आप मैंने सूली पे

ख़ूब चलाई आँधियाँ मैंने स्वयं अवकारो में

फिर पाषाण से नहीं टकराया मैं, जा फ़रहाद से पूछ ले

फिर क्या मैं अपने प्रण से हटा जा शेख़ सन्नाह से पूछ ले

और जब मैं आग की गहराइयों में डुबकियाँ लगाकर प्रीतम को बुलाने गया

थकथका के अत्याचार टूट गया और यौवन ने करवट ली

मेरा वसंत और मेरा सावन फिर से मचलने लगा

मैंने भी फिर रूप प्रकाश का रस लेना शुरू किया

अपनी जान देकर मैंने जीवन को पाया—अब कैसे खो जाएगा?

यदि कोई “रौशन” के माथे को तोड़कर भी उसे भम्र देना चाहे

प्रेम अब अटूट् शृंखला में जुड़ गया अब इसे कौन तोड़ सकेगा?

स्रोत :
  • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 193)
  • रचनाकार : नूर मोहम्मद रौशन
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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