काबुल, समरकंद और बग़दाद की याद में

kabul, samarkand aur baghdad ki yaad mein

प्रभात मिलिंद

प्रभात मिलिंद

काबुल, समरकंद और बग़दाद की याद में

प्रभात मिलिंद

और अधिकप्रभात मिलिंद

     

    दूसरे खाड़ी युद्ध के नाम

    आधी पृथ्वी पर वे ही क़ाबिज़ थे 
    और अब वे 
    समूची पृथ्वी पर अपना हक़ चाहते थे
    यह उनका सलोना सपना था 
    वे सपनों की तदबीर में लगे थे 

    आधी पृथ्वी पर उनका दर्शन चलता था
    आधी पृथ्वी पर उनके सिक्के प्रचलित थे 
    आधी पृथ्वी पर उनकी ज़ुबान बोली जाती थी 
    आधी पृथ्वी पर लोग उनके ही दिए निवाले खाते थे
    और, जहाँ ये नुस्ख़े नाकाफ़ी होते थे 
    उस बची हुई आधी पृथ्वी पर 
    वे अपनी ताक़त आज़माते थे 

    वे आतंक को कलात्मकता के साथ 
    विज्ञापित करने का हुनर जानते थे...
    वे अमनपरस्त लोग थे 
    और पृथ्वी को संगीनों की नोक पर 
    भयमुक्त कराने निकले थे 

    वे भोली सूरत वाले तानाशाह थे 
    जो याचकों की ज़ुबान बोलते थे 

    जिनका ज़िक्र तक करने से अब तकलीफ़ होती है 
    बचपन की परीकथाओं के वे 
    ख़ूबसूरत शहर तो आपको याद होंगे 
    आपको उन शहरों के सीने से 
    उठता हुआ धुआँ याद होगा 
    आपको याद होगा कि यह धुआँ
    अँगीठियों में से नहीं उठा था...

    अब तो सिर्फ़ जिजीविषा और प्रार्थना के कवच में 
    ज़िंदा बचे रहने की असंभव सी कोशिशें ज़ारी हैं 
    ये ज़मींदोज़ होते शहर 
    अब अमनपरस्तों के पसंदीदा आखेट-वन हैं
    यहाँ युद्ध एक स्थायी मौसम है

    तफ़रीह के लिए युद्ध चाहने वाले एक बात भूल जाते हैं 
    बरुद्खाने नष्ट हो सकते हैं 
    सलोने सपने भी टूट सकते हैं 
    किंतु जिजीविषा की कोई उम्र नहीं होती
    प्रार्थनाएँ अनंत तक साथ जाती हैं

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रभात मिलिंद
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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