अद्भुत छी हम
अपन एकटा गाम छल—
बाबाक गाम
अपन एकटा गाम भेल—
पतिक गाम
अपन एही दुनू गाम मे
अपन मोनक गाम तकैत छी
आ अपने-मे-अपने
अनचिन्हार भऽ जाइत छी
बाबाक गाम मे
एक बेर कऽ मैंया कें देखैत छी—
एक बेर कऽ माँ-काकीसँ लऽ कऽ
छोट-पैघ बहिनि के देखैत छी—
ने सोहर, ने पराती
ने नचारी, ने महेसबानी
ने फूल, ने फुलडाली
बाड़ी-झाड़ी सभ निपत्ता
अरिकञ्च-खम्हारुक स्वाद धरि अलोपित
‘आएल पानि गेल पानि' सन
भऽ गेल मोनक अल्हड़ता, निश्छलता...
शेष रहि गेल मात्र स्मृति,
जाहि मे—
बाबाक बखारी होइत छलनि
खरिहान मे रहैत छल
हरदि-मेरचाइक ढेरी
खेते-खेत लागल रहैत छल कोल्हुआर
आ, टभकैत गुड़क सोन्हगर स्वाद
गमकौने रहैत छल अन्तर्प्रदेश कें
मेहिक्का चूरापर
मैंयाँ-हाथक छल्हिगर दही
आ ताहिपर पातिलक अँचार—
रूसल आँखि कें सपनएबा लेल
बाध्य करैत रहै छल
मैंयाँक स्नेहक एही आँचर तर
ठेहुन आ केहुनी भरे ठाढ़ि भेलहुँ
माँ-काकी संग बढ़लहुँ
फेर,
बाबा, बाबू आ कका सभक आँखि मे गड़लहुँ
आ
एकदिन अपन नेनपन कें छोड़ि
नवारीक उमंग-उल्लासक भ्रूण-हत्या करैत
आबि गेलहुँ पतिक गाम—
अपन गाम...
अपन एहि दोसर गाम मे
फेर वह आँखि आबि ठाढ़ भऽ गेल
एतहु हम अपन
मोनक गाम ताकऽ लगैत छी...
ओहि गामक नक्शा मे
अनचिन्हार सन लगैत अछि
अपन स्मृतिक गाम
सभ ठाम सभ दिस
टी.वी. स्क्रीन सँ अबैत
मादक आ उत्तेजक ध्वनिक
अभद्र विस्तार देखि पड़ैत अछि
धारोष्ण दूधक गमक
विलुप्त भऽ गेल अछि
चिकना गेल अछि
ग्लैमरक चाकचिक्य सँ
गामक अनगढ़ मुँहेंठ
हक-हक कऽ रहल अछि संस्कृति
आडम्बरक दर्प सँ
बेढ़ल अछि संस्कार
दूषित भऽ गेल अछि बयार
बूढ़, बच्चा आ स्त्रिगणक
आश्रयस्थली एहि गाम मे
आब एक
डाकपीन मात्र रहैत अछि,
संगहि
किछु चौबटिया सेहो बनैत अछि
जे गामक एहि निरीह-निसबद्द आँगन कें
रातुक अन्हार में दिक करैत घुरैत अछि...!
हम अपन मोन मे
फेर सँ गढ़त छी एकटा गाम
शहरक जंगलमे एकटा गाम
बजैत छी गामक भाषा
गबैत छी गामक गीत
जीबैत छी जीवनक सुख-दुख
वएह जीवन-शिल्प...
...आ भऽ जाइत छी तृप्त
अपन मोनक गाम कें बिसारि
शहरक गाम मे अरजऽ लगैत छी सामर्थ्य
अद्भुत छी हम/अजमुत छी हम
तैयो किए बेर-बेर दिक करैए
अपन बाबाक गाम...
अपन पतिक गाम...
स्वप्निल आँखिक स्नेहिल गाम...!
हे राम! हे राम!!
राम-राम!!!
- पुस्तक : समग्र ज्योत्स्ना (पृष्ठ 46)
- संपादक : विभूति आनन्द
- रचनाकार : ज्योत्स्ना चन्द्रम्
- प्रकाशन : नवारम्भ
- संस्करण : 2017
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