मैं अपने समूचे जीवन में ऊँघता रहा हूँ।
दृश्य, जैसे कि एक स्वप्न में, घूमते रहे हैं,
मैंने कुछ नहीं किया, चीज़ें बस होती रहीं,
मैंने अपनी हज़ारहा कविताएँ लिखीं किसी अध-जागे,
तंबाकू के धुएँ में, पता नहीं कैसे।
अपने कैशोर्य से अभी तक
महिलामय शासन ने लपेट कर रखा मुझे रुई के फ़ाहों में
और इतना मंद कर दिया कि कर्म के, जीने के क़ाबिल नहीं बचा,
दुपहर भर सोता था, लिखता था रात में,
चिमगादड़ जैसा अँधेरे में उड़ता था, खोल कर
बाहरी नहीं बल्कि भीतर की आँखें।
इस दरमियान अगर ज्ञान या मूढ़ता,
पीड़ा या कुछ भी कोंचती थी मुझको,
मेरा उबालदान बेहद मज़बूत रहा, वह कभी फटा नहीं;
हर चीज़ भीतर ही सीझती, उबलती, उकसाती थी।
दो-दो विश्व तूफ़ान गरजे, करोड़ों
लोग हुए ख़त्म, मरे मेरे माँ-बापः
नींद नहीं टूट सकी इस सबके बावजूद;
शर्म भले ही हो मुझे, लेकिन सच यही है।
मैंने भोगा सब कुछ जैसे कि पर्दे पर,
यहाँ तक कि जब मैं ख़ुद खदेड़ा जा रहा था
सूअर पालन के लिए, क़ब्र खोदने के लिए, या जब
सटाक से सिर के चारों तरफ़ गोलियाँ सन्नाती थीं.
सोया रहा मैं सदा, बेहरकत। लेकिन अब
जब बूढ़ापन मेरे अंगों को कँपा रहा
और चाम के नीचे हड्डी से टकरा रहा अपने जामः
अब आख़िर चाहूँगा, जागूँ और भागूँ,
गटगट पी जाऊँ उन वंचित इच्छाओं को,
मौज करूँ, और आनंद पर पछताता, पहुँचाऊँ चोट,
और मर जाऊँ, अपने अति-विलंबित सुखों से विकलांग,
बदबू, दलिद्दर और शर्म में खोया
घूरे पर पड़ा एक बौराया कुत्ता।
लेकिन तमाम दूसरी चीज़ों की तरह, यह भी महज़ सपना है।
अगर मैं आज तक नहीं जागा, तो मुझको
पता है मरने तक खर्राटे भरूँगा। मरना शायद
मुझको बाध्य करे जाग्रत हो
सामना करने को
उस सारे बोझ का जिसकी उपेक्षा की। शायद
नींद के परे ख़ामोशी में, जागूँ मैं।
- पुस्तक : दस आधुनिक हंगारी कवि (पृष्ठ 43)
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक गिरधर राठी, मारगित कोवैश
- प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन
- संस्करण : 2008
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