Font by Mehr Nastaliq Web

जंगल

jangal

अनुवाद : सुनील शर्मा

रामनाथ शास्त्री

अन्य

अन्य

और अधिकरामनाथ शास्त्री

    अभी कितने जंगलों में से होकर

    गुज़रेगा, क़ाफ़िला अपना?

    जब भी अपने सफ़र में—

    कभी प्रेम के गीतों के सुहाने स्वर गूँजते हैं

    क़दम मिलते हैं पथिकों के,

    चमक आती है नज़रों में,

    और भोले, क़ाफ़िले वाले—

    इन गीतों की मस्ती में रँग जाते हैं इस तरह—

    नज़र चौकन्नी नहीं रहती,

    तभी कोई जंगल सामने आकर दरिंदे छोड़ जाता है

    भटका देता है रस्ते से,

    डरा जाता है गीतों को,

    अभी कितने जंगलों में से होकर

    गुज़रेगा क़ाफ़िला अपना

    कभी ऐसा भी होता है

    अचानक बस्तियों के बीच

    घना जंगल जब कोई कहीं से उग आता है

    भोली बस्तियों में अचानक जाती है मौत

    मासूमों के ख़ून से जश्न मनाकर

    वह जंगल छुप जाता है

    और छटपटाते हैं ज़ख़्मी गीत-नग्मे

    सफ़र की चाह मर जाती है

    क़दम रास्तों को ढूँढ़ते हैं

    पर रास्ते नज़र नहीं आते

    अभी कितने जंगलों में से होकर गुजरेगा क़ाफ़िला अपना?

    यह जंगल लोप होता है

    कभी ख़त्म नहीं होता

    कभी पूर्व से निकलता है

    कभी पश्चिम में डूब जाता है

    कभी उत्तर, कभी दक्षिण

    घना जंगल/घना जंगल

    दरिंदों की वह रंग-भूमि

    अचानक बंद होकर

    यह जाकर छुप जाता है फिर कहाँ?

    कभी सोचो तो सही

    दोस्तो, साथियो, रफ़ीक़ो, यारो

    कहीं हमारे दिलों में इसका बसेरा तो नहीं?

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक डोगरी कविता चयनिका (पृष्ठ 54)
    • संपादक : ओम गोस्वामी
    • रचनाकार : रामनाथ शास्त्री
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2006

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY