जैसे हमारे शरीरों की छाप
jaise hamare shariron ki chhaap
जैसे हमारे शरीरों की छाप होती है
कोई भी निशान नहीं बचेगा इस जगह पर कि हम कभी यहाँ थे
दुनिया बंद होती है हमारे आगे
और बालू अपनी सिलवटें दूर कर लेती है
अभी से दिख रही हैं वे तारीख़ें
जिनमें तुम कहीं नहीं हो
हवा अभी से उड़ा रही है उन बादलों को
जो हम पर कभी नहीं बरसेंगे
और तुम्हारा नाम उन जहाज़ों की यात्री-सूची
और उन होटलों के रजिस्टरों में है
जिनका नाम सुनकर दिल ठंडा पड़ जाता है
तीन भाषाएँ जो मैं जानता हूँ
और सारे रंग जिन्हें देख सकता हूँ
और जिनके सपने देखता हूँ
कोई नहीं करेगा मेरी मदद।
- पुस्तक : धरती जानती है (पृष्ठ 138)
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक अशोक पांडे, शिरीष कुमार मौर्य
- प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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