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इस घोर सूखे में

is ghor sukhe mein

बलराम कांवट

बलराम कांवट

इस घोर सूखे में

बलराम कांवट

और अधिकबलराम कांवट

    कहते हैं

    कभी किसी को प्यासा नहीं सोना चाहिए

    चाहे कितनी ही गहरी

    लगी हो आँख

    कितना ही आलस भरा हो

    तुम्हारी देह में

    कितनी ही दूर रखी हो

    खाट से मटकी

    अगर प्यास बहुत कड़ी है

    तो ज़रूर उठकर जाना ही चाहिए तुम्हें

    जल के पास

    बचपन में जब चाँदनी रातों में लड़ते-झगडते

    हम भाई-बहन छत पर सोते थे

    सिरहाने जल से भरा लोटा रखते हुए

    माँ कहती थी

    जब हम गहरी नींद और गहरी प्यास में होते हैं

    और मन मरोड़े

    अलसाये पड़े रहते हैं

    तो अंदर ही अंदर

    इतने छटपटाने लगते हैं प्राण

    कि वे देह से उतरकर

    बाहर दुनिया में निकल जाते हैं

    जल की खोज में

    वे गाँव ही का एक क़िस्सा सुनाती थी

    कि कैसे एक बुढ़िया के प्राण

    जल ढूँढ़ते हुए चले गए

    पड़ौस के आँगन में

    एक खुले

    घड़े के अंदर

    तभी उस घर में

    कोई उठा

    और दो घूँट पानी पीकर

    घड़े को ढक आया

    इस तरह उसी घड़े में अटके रह गए

    उस बुढ़िया के प्राण

    सुबह देखा तो उसकी साँसें बंद पड़ी थीं

    सबने मृत समझकर

    रोते-सुबकते

    उसकी काठी बाँधी

    वे शमशान में

    उसे अग्नि देने ही वाले थे

    कि वहाँ दूर किसी ने अनजाने ही हटाया घड़े से बर्तन

    और इधर

    लकड़ियों को हटाती

    भड़भड़ाकर

    बाहर आई बुढ़िया

    इस तरह जलते-जलते वापस लौटे

    उसकी देह तक प्राण

    इस घोर सूखे में

    प्यास से अधमरा

    बैठा हूँ

    किसी रीती पड़ी बावड़ी में पाँव लटकाए

    और सोचता हूँ

    अब अगर जाना ही पड़ा मेरे प्राणों को

    तो कितने रेगिस्तानों और बंजर भूमियों को पार करके जाएँगे

    वे प्यास बुझाने

    और जब तक लौटेंगे

    अग्नि देकर

    घर लौट चुके होंगे ग्रामीण

    देह जलकर

    राख हो चुकी होगी!

    स्रोत :
    • रचनाकार : बलराम कांवट
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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