हम मनुखक मात्र साधन
hum manukhak maatr sadhan
रहू एहिना, एहिना स्थिर रहू
जहिना छी तहिना रहि जाउ
जड़ भऽ जाउ अहाँ हे रात्रिदेव!
देखू, देखू शकुन्तला हमर सुतलि छथि
भरत छथि गर्भस्थ मुदा, जागल छथि
हम छी दुष्यन्त, घरमे बन्द
जंगलमे बौआइत-भसिआइत नहि चक्रवर्ती।
चक्रवर्ती नहि छी हम भवन-विलासी
(जे) शत सहस्र कक्षमे बन्द
सुन्दरी, नव यौवना, कोमलांगीकेँ राखि—
घोर विपिनक अन्हारमे गर्भवती राजमहिषीक
चिन्तामे कण्वक बूढ़-जर्जरकाया थरथरायत
आ अपने सुतब ऊँच पलंगपर
भरि राति कछमछ करैत छटपटायब।
आ, प्राते देख मुँह अपन अयनामे
देखब अपन तरहत्थीक भाग्य-रेखा।
बिसरि जायब अपनाकेँ कोनो शाप-बलें
मुदा नहि बिसरत चक्रवर्ती कहायब,
बिसरत नहि भवन विलासी।
जहिना छी तहिना रहि जाउ
एहिना स्थिर रहू, रहू एहिना हे, रात्रिदेव!
देखू शकुन्तला हमर सूतलि छथि
भरत छथि गर्भस्थ मुदा जागल छथि
हम छी दुष्यन्त, घरमे बन्द, चक्रवर्त्ती।
चक्रवर्त्ती नहि छी हम, भवन-विलासी
चक्रवत् बौआइत छी बेगर्ते अपन
आ कहबैत छी नगर-निवासी।
जन्मभूमिक विस्मरण
आ पैतृक वास स्थानक त्याग करऽ पड़ि गेल छल एक युग पूर्णे
आ कहबैत छी प्रवासी
नगर-निवासी।
रहू एहिना, एहिना स्थिर रहू
जहिना छी तहिना रहि जाउ
जड़ भऽ जाउ अहाँ हे, रात्रिदेव!
बीजी-पुरुखाक विद्योपार्जित धन
आ महाकुलक जन-बल बिसरि
बिसरि पितामहक बारह बर्षक पश्चात
वाराणसीसँ प्रत्यागमन भऽ महापण्डित,
यशस्वी, प्रतिष्ठितक पौत्र हम
हाथी बिसरि
हथिसार उजारि
बेची कड़ी रेलभाड़ा निमित्त
आयल छी नगरक नगर, राजधानीक गली,
उप-गलीक भाड़ादार हुड़ुक सन खोलीमे रहैत छी।
रहैत छी लालायित
लाल-गोल-बाल सूर्यक दर्शन लेल
जीबैत छी कृत्रिम जीवन
हँसैत छी, बजैत छी आ करैत छी सभटा कृत्रिम अभिनय
रखने छी नाटकीय अपन व्यक्तित्व।
हर्षित होअय रोम-रोम
पुलकित होअय गात-गात
कतऽ पायब बसात?
नर्त्तित-बिजुरी पंखाक कृत्रिम बसातमे
सुखबैत छी गन्हायल देहक घाम
बुझैत छी क्षीण कक्षकेँ अपन चारु धाम।
अर्थकरी विद्या पढ़ल
जीवनक साधन बनल
साध्यहीन जीवनक साध्य बनल जीवन।
दिन नहि अपन
राति थिक अपन
जीवनक कटु-मधु-अनुभव लेल राति थिक अपन।
तेँ रहू एहिना, एहिना स्थिर रहू
जहिना छी तहिना रहि जाउ
जड़ भऽ जाउ अहाँ हे, रात्रिदेव!
अन्यथा,
सूर्यक किरण-जागरण
धरतीपर पसरि जगाओत बहुत,
बहुत किछु मरि जायत।
अपन अस्तित्वक हमरा बोध होयत
शकुन्तलाक मृत्यु आ कंकालनीक जन्म होयत
गर्भस्थ भरतक पिण्ड-स्खलन
पुनः गर्भगन्धहीन कोखि देखि
चक्रवर्त्ती बौआयत नहि जंगल पहाड़मे
करत नहि मृगया।
दोग-दाग दऽ गली-कुची आ बाट-घाट
भरि नगरि-बजार बौआयत।
मनुख हमर मरि जायत
आ, रहि जायत मनुख नहि
पुनः मनुखक मात्र साधन।
देखू, देखू शकुन्तला हमर सुतलि छथि
भरत छथि गर्भस्थ मुदा, जागल छथि
हम छी दुष्यन्त, घरमे बन्द।
एहिना स्थिर रहू, रहू एहिना
जहिना छी तहिना रहि जाउ
जड़ भऽ जाउ अहाँ हे, रात्रिदेव!
- पुस्तक : मैथिलीक नव कविता (पृष्ठ 76)
- संपादक : रामकृष्ण झा ‘किसुन’
- रचनाकार : हंसराज
- प्रकाशन : सांस्कृतिक विभाग, सुपौल, बिहार
- संस्करण : 1971
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