मैं एक मकान से होकर गुज़रा जहाँ मैं कभी रहता था
main ek makan se hokar guzra jahan main kabhi rahta tha
येहूदा आमिखाई
Yehuda Amichai

मैं एक मकान से होकर गुज़रा जहाँ मैं कभी रहता था
main ek makan se hokar guzra jahan main kabhi rahta tha
Yehuda Amichai
येहूदा आमिखाई
और अधिकयेहूदा आमिखाई
मैं एक मकान से होकर गुज़रा जहाँ मैं कभी रहता था
वहाँ अब भी एक आदमी और एक औरत साथ रहते हैं फुसफुसाहट में
कई बरस बीत गए हैं
सीढ़ियों के बल्ब के जलने-बुझने और
फिर जलने की ख़ामोशी गुनगुनाहट को
दरवाज़ों के ‘की-होल’ घावों की तरह हैं, जहाँ से
सारा रक्त बाहर बह गया है
और भीतर लोग रह गए मौत की तरह पीले
मैं एक बार और खड़ा होना चाहता हूँ जैसे
मैं खड़ा रहा था अपने प्यार को थामे दरवाज़े पर सारी रात
जब सुबह-सुबह हम वहाँ से निकले तो
सारा घर टूटने लगा था, फिर तब से बाहर
और उसके बाद सारा संसार
एक बार फिर भर जाना चाहता हूँ इच्छाओं से
जब तक कि जलने के गहरे निशान मेरी त्वचा पर दिखने लगें
मैं चाहता हूँ मुझे दुबारा लिखा जाए
जीवन की किताब में, हर रोज़ लिखा जाना चाहता हूँ
जब तक कि
लिखने वाला हाथ दर्द करने लगे।
- पुस्तक : धरती जानती है (पृष्ठ 36)
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक अशोक पांडे, शिरीष कुमार मौर्य
- प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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