हमारे मन का सावन

hamare man ka sawan

शाम सिंह

शाम सिंह

हमारे मन का सावन

शाम सिंह

और अधिकशाम सिंह

    अपने मन का सावन यारो

    बरसा जा कहीं और

    झूमे नाच-पास रहे

    वे भी ले गए मोर

    झीलों पर तो बरस रहे हैं

    आज भी बादल सारे

    अपने मन के मरुस्थल को

    कोई बूँद पुकारे

    उड़ी कहाँ अपने हिस्से की

    घटा घोर घनघोर

    चुप की परतों में खोए

    गीतों के पते-ठिकाने

    पहुँचे हैं अपने मन में

    आँसु-भरे तराने

    कहीं नहीं कचनार दिख रहा

    सिर्फ़ दिखे वीराने

    चिंतन ने कुछ भरी उड़ानें

    अंबर घूमे सारे

    मन के काले आसमान पर

    उदय होते तारे

    छाया अंधकार सन्नाटा

    पवन मचाए शोर

    रूह की राग कोई सुनता

    देह की कोरी गाथा

    चलते-फिरते रेत की तरह

    पुतवाया निज माथा

    क़दमों मे पसरा सन्नाटा

    भूलें गति का ओर

    अपने मन का सावन यारो

    बरसा जा कहीं और

    झूमे नाच, पास रहे

    वे भी ले गए मोर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 639)
    • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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