हाट ही सब बिकाय

haat hi sab bikay

हरे प्रकाश उपाध्याय

हरे प्रकाश उपाध्याय

हाट ही सब बिकाय

हरे प्रकाश उपाध्याय

और अधिकहरे प्रकाश उपाध्याय

    गाँव में हाट नहीं था जब

    ले-दे के चलता था काम

    इधर वाला पड़ता बीमार तो

    उधर वाला करता

    उसके पशुओं का सानी-पानी

    उधर वाले का बच्चा रोता तो

    इधर वाला उसे पिलाता दूध

    आख़िर कहाँ बेचा-ख़रीदा जाता और क्यों?

    किसी के घर ब्याह लगता तो

    टोले की तमाम औरतें

    जुटकर पीस-कूट देतीं अन्न-मसाले

    जब गाँव से कोई एक लड़की की

    डोली उठती तो

    दिन भर गाँव में बारिश होती

    परोजन के लिए

    मँगनी माँगते लोग दूध

    बरतन और बिछावन

    पैसे की अकड़ में

    कोई भाड़े से या मोल ले आए चीज़ें दूर बाज़ार से

    तो ताना देता सारा गाँव

    मौक़ा पड़ा तो

    पूरा गाँव एक दालान में जुट जाता

    मगर जब से दुनिया ही हो गई है गाँव

    और गाँव हो गया है हाट

    बदल गए हैं नज़ारे

    वह दालान ढह गई है जहाँ

    मिल जुटकर बतियाते थे ग्रामीण

    भैया, चाचा, बहिनी सब हो गए हैं दुकानदार

    खरका भी हुआ तो बिका

    कौन किसी को दें कुछ और क्यों

    मूरख ही होगा जो अब माँगे

    जब बिक रही हैं सारी चीज़ें यहीं

    पैसे हो गए हैं गोतिया-पड़ोसी

    रहे तो बची रोटी-बेटी की इज़्ज़त

    नहीं तो चढ़ जा बेटा सूली पर...

    स्रोत :
    • रचनाकार : हरे प्रकाश उपाध्याय
    • प्रकाशन : हिंदी समय

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