विलाप-1/मई
व्यवस्था संक्रमित है
और संक्रमण नई व्यवस्था!
लोग हरियाली की तरह घटते जा रहे हैं
और श्मशान निगल रहे हैं दीमकों से ज़्यादा लकड़ियाँ!
नदी के सीने पर मछलियों की जगह लाशें हैं
और देश के डोम व्यस्त हैं देश के प्रधानमंत्री से ज़्यादा!
आँकड़ें अग़वा कर लिए गए हैं और यह ख़बर
पढ़ी जा सकती है पेशाबघरों की दीवारों पर
जहाँ स्वास्थ्य मंत्री मूत के छींटों से
बचा रहे हैं अपनी चप्पलें!
हत्याएँ आपदाओं के वस्त्र पहनकर लेट गई हैं
और हत्यारे सिखा रहे हैं अवसर की उपयोगिता!
नींद खिड़की से कूदकर ख़ुदकुशी कर चुकी है
अब रात भर भिनभिनाती हैं चिंताओं की मक्खियाँ!
ईश्वर कुछ देर पहले केले के छिलके पर फिसलकर गिर गया है
और लहूलुहान अपना चेहरा लिए
भाग रहा है साँस-साँस
एम्बुलेंस के पीछे
और मैं अपनी सूजी आँखें लिए
ढूँढ़ रहा हूँ एक कोना
कि रोने की जगहें कम पड़ रही हैं
और रोने की वजहें ज़्यादा!
- रचनाकार : सौरभ कुमार
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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