ग्रे

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अतुल

अतुल

ग्रे

अतुल

और अधिकअतुल

    हम जो छुप छुप कर करते रहे पिताओं से ढेर सारी नफ़रत

    मगर दिखते रहे निसार उनकी मोहब्बत और याद में जब-तब

    हम जो घरों से भागने को ढूँढ़ते रहे कॉलेज और दफ़्तरों के बहाने

    पर गाते दिखे गाँव का गाना, चुआते लार नॉस्टेल्जिया की मिठाई पे

    हमारा सच, हमारा झूठ सब एक-सा है

    हम जो अकेलेपन का रोना चिपकाए रहें अपनी आस्तीन पर

    और मिले प्रेम को धकियाते रहें बाज़ुओं से जब-तब

    चीख़ते रहे क्रांति-क्रांति-क्रांति... के नारे,

    और प्रेम में मिली मनाही को भी छूटी जायदाद समझ शराब के घूँट पीते रहे

    हमारा सच, हमारा झूठ सब एक-सा है

    हम जो बारिश के दिनों में कोसते रहे आसमान को

    और धूप के दिनों में बरसात के ख़याल से मोहाये उफनते रहे

    सर्दियों में दी गालियाँ रज़ाई वाले कारीगर को

    और गर्मियों में पंखे के नीचे जगह घेरने के लिए झगड़ते रहे

    हमारा सच, हमारा झूठ सब एक-सा है

    हम जो शहर में गाँठे रहे सर पे गमछा दिखाते ठेंठपने का फ़र्ज़ी प्रमाणपत्र

    और घूमते रहे गाँव, मुँह पर शहरी गंभीरता और पैरों में लिए ब्रांडेड चप्पल

    हम जो बौद्धिक समाज में बचे बनकर भदेस

    और सरल लोगों में जटिल ख़यालों की पट्टी बाँधे रहे

    लिखते रहे चोरी छुपे कविताएँ शोध-पत्रों के भीतर

    और कविताओं में ठूँसते रहे थ्योरी के सत्रह सवाल

    साटे रहे किताबें अपने सीने से,

    चस्पाँ किए रहे तस्वीरें किताबों की जब-तब

    पढ़ने का सलीक़ा तक सीखने को,

    ही समझने को कुदाल और फरूहे की चाल

    हमारा सच, हमारा झूठ सब एक-सा है

    हम जो बचाते रहे ख़ुद को दिखाकर कोई समूह,

    लिए एक 'हम' की ढाल

    हमारा सच, हमारा झूठ सब एक-सा है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अतुल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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