एक

सुबह तुम जागती हो
और देखती हो कि तुम घर पर हो
घर जिसमें थोड़ी-सी धूप रहती है
और छाता भर छाँव भी
कुर्सी पर बैठे पिता अख़बार पढ़ रहे हैं
माँ मटर छील रही है
दीदी मटर की पूड़ियाँ बनाने की तैयारी में है
ये तैयारी ससुराल में नाम कमाने की भी है,
भाई पढ़ने की अदाकरी करता हुआ
गुलाब के पास फुदक रही
चिरई को देख कर ख़ुश हो रहा है
तुम बोरे पर बैठकर घड़ी के पेंडुलम-सी हिलती हुई
सोलह का पहाड़ा याद कर रही हो
तभी वक़्त तुम्हारे कंधे पर हाथ रखकर
तुम्हें हिलने से रोक देता है
अब घर है और नहीं भी,
घर के दृश्य से मिटा दी गई
तुम हो और नहीं भी
जो है, वह सिर्फ़ धुंध है
लेकिन कितनी, तुम्हारे किराए के कमरे से
ठीक-ठीक अंदाज़ लगाना मुश्किल है
इमारत की बग़ल में बिजली के उलझे हुए तार हैं,
दीवारों पर कबूतर की बीट की छींट है
घड़ी में सुबह का दस बज कर बीत चुका है
गली में पुराने कपड़े के बदले बर्तन देने वाला टेर लगा रहा है
अब जब दफ़्तर जाने का वक़्त,
वक़्त से आगे बढ़ा जा रहा है,
तब यह सोचना फ़िज़ूल है
कि घर पर रह गए तुम्हारे कपड़ों के बदले
क्या माँ ने बर्तन ले लिए होंगे!
फिर भी यह ख़याल ख़राश की तरह आ ही जाता है
अचानक तुम्हारे पैर घर की दहलीज़ से नहीं
दफ़्तर की सीढ़ी से टकराते हैं
घर कहीं नहीं है
कम से कम कुछ लोगों के लिए तो कहीं भी नहीं.

दो

बचपन में सुनते थे
महानगर में ऊँची-ऊँची इमारतें होती हैं
इमारतों के सिर पर इमारतें
बड़ी और ख़ूबसूरत इमारतें
इतनी सारी के गाँव के गाँव समा जाएँ
महानगर की बात कुछ इस तरह आगे बढ़ती कि
फलाँ फलाँ आदमी महानगर चला गया है
कमाने-खाने
वहाँ काम ख़ूब है और पैसा भी
हमारे गाँव से महानगर जाने वाला पहला
आदमी महँगू जब चैत की फ़सल काटने लौटा तो
सबने कहा कि अब तो तुम्हारे पास महानगर में घर होगा
तुम तो अपने बच्चों और मेहरारू को भी वहाँ ले जाओगे,
पर महँगू जाने क्यों उदास था,
हमने उसकी उदासी को अनदेखा कर
महानगर के बारे में पाल रखे अपने बेसब्र सपने
और उसके घर के बारे में अपने कौतूहल से भरे सवाल बिखेर दिए
महँगू भाई वहाँ तो बड़ी-बड़ी इमारते हैं
तुम तो उसी में से किसी में रहते होगे
तुम्हारा घर कैसा है
और उसकी दीवारें किस रंग की हैं
तुमने क्या किसी दीवार पर
सुआ पाखी का चित्र गढ़ा है?
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद महँगू बोला
वहाँ इमारतें तो हैं
पर महानगर सबको घर नहीं देता
वहाँ सीलन से सिहरती आत्मा की
ठिठुरन और सिकुड़न
हर रोज़ बढ़ती जाती है
कमाने-खाने गए लोगों का
घर कहीं पीछे छूट जाता है
फ़ुटपाथ पर, फ़्लाईओवरों के नीचे बसेरे होते हैं,
टीन के शेड वाले रैन बसेरे होते हैं
झुग्गी होती है, खोली होती है
बहुत हुआ तो किराए का कमरा हो जाता है
बदनसीब बेघर हो जाते हैं
घर कहीं पीछे छूट जाता है

स्रोत :
  • रचनाकार : प्रीति सिंह परिहार
  • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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