प्रश्न किया एक शिल्पी ने, घर क्या है?
अलमुस्तफ़ा ने कहा :
नगर में घर बनाने से पहले वन के एकांत में अपने मन की पर्णकुटी बनाओ।
जैसे तुम्हारे अंतर में साँझ की वेला में घर लौटने वाला मन रहता है, वैसे ही घर से
दूर और एकाकी घूमने वाला मन भी रहता है।
तुम्हारा घर तुम्हारी विराट् काया है।
दिन में वह रवि-किरणों के संग जागती और रात की नीरवता में सोती है; सपनों से
भी वह रिक्त नहीं। तुम्हारा घर भी तो स्वप्न लेता है, और स्वप्न में नगर से बाहर निकलकर
वन-वीथियों और गिरि-शिखरों पर विहार करता है।
मन करता है कि मैं तुम्हारे घरों को अपनी मुट्ठी में समेटकर जंगलों और पर्वतों की
तलहटियों में बिखेर दूँ जैसे हवा तिनके को बिखेर देती है।
कितना अच्छा होता, जो पर्वत-घाटियाँ तुम्हारा घर होतीं और हरी पगडंडियाँ
तुम्हारी गलियाँ। द्राक्षा के सघन वन कुजों में तुम एक-दूसरे से भेंट करते और पृथ्वी की
गंध से महकते कपड़े पहनकर अपने घरों को लौटते।
दुःख है। अभी ऐसा नहीं हो सकता।
जाने किसकी दुर्लक्ष आशंका से तुम्हारे पूर्वजों ने तुम्हें इतनी घनी बस्तियों में बसा
दिया। वह आशंका कुछ काल और तुम्हारे रक्त में बसी रहेगी। कुछ काल और नगर की
सीमांतवर्ती प्राचीर तुम्हारे ग्राम-गृहों को तुम्हारे खेतों से विभाजित करके रखेगी।
आर्फ़लीज-निवासियो! इन घरों की दुर्भद्य दीवारों में तुमने कौन-सी निधि सुरक्षित
रखी है और इन लौह द्वारों के अंदर कौन-सी मुक्ता मणियों का ख़ज़ाना छिपा है जिस पर
तुम आठ प्रहर प्रहरी बने बैठे हो?
क्या तुम प्रशांत हो? क्या तुम्हें वह मनःप्रसाद प्राप्त है जो मानव की अंतः शक्तियों को
प्रकाश और प्रेरणा देता है?
क्या तुम्हारे हृदय में अतीत के वे संस्कार जीवित हैं जो आत्मा के शिखर-शृंगों को
समन्वित करते हैं?
क्या तुम्हारे पास सौष्ठव है? वह सौष्ठव जो हृदय को काष्ठ और पाषाण-निर्मित
निवास-स्थलों से दूर पवित्र गिरी-शिखरों की ओर आकर्षित करता है।
कहो, क्या इन विभूतियों से तुम्हारे घर-गाँव विभूषित हैं?
अथवा वहाँ केवल विलास और विलास की अमिट भूख ही है, जो अनचाहे अतिथि
की भाँति प्रवेश करके पहले आतिथेय और अंत में घर पर पूर्ण अधिकार कर बैठती है?
यही नहीं, फिर वह ऐसी जादूगरनी भी बन जाती है जो सदा तुम्हारी कामनाओं को
अपने इशारे पर नचाती है।
यद्यपि इस जादूगरनी के हाथ रेशम के हैं लेकिन दिल फ़ौलाद का है।
यह तुम्हें गहरी मीठी नींद में सुला देती है केवल इसलिए कि शय्या के पास खड़ी
होकर वह तुम्हारी शारीरिक विलास-लीला पर हँस सके।
वह तुम्हारी विवेक-बुद्धि का उपहास करती है, और अंत में काँच के भंगुर पात्रों की
तरह तोड़ देती है।
स्मरण रखो! दैहिक विलास की भूख समस्त आत्मिक आवेशों की हत्या कर देती है
और बाद में मृतात्मा की अंतिम यात्रा में उपहास हेतु श्मशान तक साथ देती है।
किंतु, ओ सुरलोक की संतानो! तुम विश्रांति में भी अविश्रांत रहते हो। तुम किसी के
फंदे में नहीं फँसोगे और न किसी से ठगे जाओगे।
तुम्हारा घर बढ़ती हुई नाव का लंगर नहीं।
तुम्हारा घर ऐसा चमकीला चल-चित्र नहीं जो घाव को ढकता है, बल्कि वह ऐसी
भू-पलक है जो आँख की रक्षा करती है।
घर की चौखट में से गुज़रने के लिए तुम्हें अपने पंख समेटने न पड़ेंगे। और उसकी छत
से टकराने के डर से तुम्हें मस्तक नवाने को विवश न होना पड़ेगा। या घर की दीवारें
लड़खड़ाकर गिर न पड़ें—इस डर से तुम्हें साँस लेने में भी हिचकिचाहट नहीं होगी।
तुम्हें उन मक़बरों में भी नहीं रहना पड़ेगा जो मृत व्यक्तियों ने जीवितों के लिए
बनाए थे।
वह घर कैसा ही भव्य और विशाल क्यों न हो, तुम्हारे गहन आत्मतत्व का विश्राम-
स्थल नहीं बन सकता।
क्योंकि तम्हारे अंतर में जो अनंत बसता है वही असीम नीलाकाश का बासी है।
प्रभात का कुहरा ही उसका प्रवेश-द्वार है और रात के गीत एवं मौन ही उसके वातायन हैं।
- पुस्तक : मसीहा
- रचनाकार : ख़लील जिब्रान
- प्रकाशन : राजपाल एंड संस
- संस्करण : 2016
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.