खिलाड़ी दोस्त

khilaDi dost

हरे प्रकाश उपाध्याय

हरे प्रकाश उपाध्याय

खिलाड़ी दोस्त

हरे प्रकाश उपाध्याय

और अधिकहरे प्रकाश उपाध्याय

    खिलाड़ी दोस्तों के बारे में

    बताने से पहले ही सावधान कर दूँ कि

    मेरा इशारा ऐसे दोस्तों की तरफ़ नहीं है

    जो ज़िंदगी को ही एक खेल समझते हैं

    बल्कि यह उन दोस्तों की बात है जो

    खेल को ही ज़िंदगी समझते हैं

    जो कहीं भी खेलना शुरू कर देते हैं

    जो अकसर पारंपरिक मैदानों के बाहर

    ग़ैर पारंपरिक खेल खेलते रहते हैं

    वे दोस्त

    खेल के बाहर भी खेलते रहते हैं खेल

    जब भी जहाँ

    मौक़ा मिलता है पदाने लगते हैं

    पत्ते फेंकने लगते हैं

    बुझौव्वल बुझाने लगते हैं

    गोटी बिछाने लगते हैं

    आँखों पर कसकर बाँध देते हैं रूमाल

    और दुखती रग को दुखाने लगते हैं

    वे दोस्त अच्छी तरह जानते हैं

    दोस्ती में खेलना

    सही तरह पैर फँसाना वे जानते हैं

    जानते हैं वे कब

    कहाँ से मारने पर रोक नहीं पाएगा गोल

    जानते हैं कितनी देर दौड़ाएँगे

    तो थककर गिर जाएगा दोस्त

    वे हाथ मिलाते हुए अक्सर

    हमारी भावनाएँ नहीं

    हमारी ताक़त आँकते रहते हैं

    अक्सर थके हुए दौर में

    भूला हुआ गेम शुरू करते हैं दोस्त

    वे आँसू नहीं मानते

    तटस्थ वसूलते हैं क़ीमत

    हमारे हारने की

    सुख और ख़ुशी में भले भूल जाते हों

    दुख में अकेला नहीं छोड़ते

    जाते हैं डंडा सँभाले

    उदासी और थकान में

    शुरू करते हैं खेल

    और नचा-नचा देते हैं

    दोस्त अवसर देखते रहते हैं

    काम आने का

    और मुश्किल समय में अक्सर

    ऐसे काम आते हैं कि भूल नहीं सकते हम

    हमारे गहरे अभाव

    टूटन और बर्बादी के दिनों में

    जब दुश्मन उपेक्षा करते हैं हमारी

    दोस्त आते हैं ख़ैरियत पूछने

    और हास्य के शिल्प में पूछते हैं हाल

    हमारे चेहरे की उड़ती हवाइयाँ देखकर

    हताश नहीं होते

    वे मूँछों में लिथड़ाती मुस्कान बिखेरते हैं

    दोस्त हमें हारकर

    बैठ नहीं जाने देते

    वे हमें ललकारते हैं

    चाहे जितने पस्त हों हम

    उठाकर हमें मैदान में खड़ा कर देते हैं वे

    और देखते रहते हैं हमारा दौड़ना

    गिरना और हमारे घुटने का छिलना

    ताली बजाते रहते हैं वे

    मूँगफली खाते रहते हैं

    और कहते हैं

    धीरे-धीरे सीख जाओगे खेल

    जो दोस्त खेल में पारंगत होते हैं

    खेल से भागने पर कान उमेठ देते हैं

    कहते हैं, कहाँ-कहाँ भागोगे

    ‘भागकर जहाँ जाओगे

    हमें वहीं पाओगे’

    खेल में पारंगत दोस्त

    खेल में अनाड़ी दोस्त से ही

    अक्सर खेलते हैं खेल!

    स्रोत :
    • रचनाकार : हरे प्रकाश उपाध्याय
    • प्रकाशन : हिंदी समय

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