उदासियाँ तब कितनी अलग होतीं

udasiyan tab kitni alag hotin

गगन गिल

गगन गिल

उदासियाँ तब कितनी अलग होतीं

गगन गिल

और अधिकगगन गिल

    अच्छा हुआ, उसने पुत्र नहीं जन्मा

    अच्छा हुआ, उसने किसी कमज़ोर क्षण में

    सिर्फ़ इस इच्छा को पनपने दिया

    और आदमी को इसका पता नहीं चला

    अच्छा हुआ, पुत्र जो उसने सोचा था

    आदमी की अक्लमंदी और मूल्यों का बना हुआ

    अक्स उसका भुरभुराया नहीं

    वह जीता-जागता उसके सपने में आया

    और छाया-सा चला गया

    अच्छा हुआ, वह

    पुत्र धारण करने से पहले

    किसी बिस्तर तक नहीं गई

    और शाम की यह लालसा

    कुर्सियों में अलग बैठे-बैठे शाम में ढल गई

    अब वह कम-से-कम

    इस शाम को एकांत में

    दोहरा तो सकेगी,

    इसकी छाया में निंदिया तो सकेगी,

    ऑफ़िस से लौटते हुए

    बसों में हिचकोले खाने का संबल

    जुटा तो सकेगी,

    सोई हुई आँखों में सपना

    तैरा तो सकेगी...

    अगर कहीं सचमुच

    वह माँ हुई होती,

    अगर कहीं सचमुच

    उसका बच्चा चौबीसों घंटे

    उसके सपने में से निकलकर

    उसकी शामत बना होता—

    सपने लेने वाली यह लड़की

    कितनी बेचारी होती!

    अकेली, उदास, हारी हुई

    अकेली सारी थकावटें,

    उदासियाँ और हारें

    तब इस थकान से कितनी अलग होतीं

    जो कुर्सी पर अलग-अलग बैठने की

    इस हार में

    उसके साथ-साथ चलती हैं!

    स्रोत :
    • पुस्तक : एक दिन लौटेगी लड़की (पृष्ठ 17)
    • रचनाकार : गगन गिल
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1989

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