नहीं, मैं निश्चय ही तुम्हें नहीं भूलूँगा।
और वार्षावा के ऊपर बादल मेरे हैं,
और पोलैंड देश के ऊपर आती-जाती बदलियाँ,
उनकी छाया जो मंडराती है दानों की धूल पर।
और अगर किसी पैमाने से, जिसे मैं नहीं जानता, नापा जाएगा
मेरे वयस्क वर्षों के कड़वे आँसुओं को,
विदेशी राष्ट्रों में यात्रा की हताशा को—
कोई एक पत्थर नहीं फेंकेगा।
नहीं, मैं निश्चय ही तुम्हें नहीं भूलूँगा।
जब सुबह भरपूर ओस होती है
घासों पर और विस्तुला नदी के किनारे की सड़कों की रेत
छाया की क़तारों के पार गुलाबी चमकती है
मैं साथ जाना चाहूँगा और सपनों की धरती को
भविष्य की धरती को खंडहरों से बचाना
और एक गीत से सहारा देना अपने भाइयों को
और यह ख़ुशी है—अगर मैं कर भर पाऊँ।
अगर तुम जानना चाहोगे कि वह कैसे हुआ
कि मैं देश से भागा, जो कि मुझे प्यारा है,
मैंने यह किया—फ़र्ज़ करो कि हिम्मत हो
उन विचारों को शक्ल देने की जिनके कोई मुखड़ा नहीं
और जिसे परवाह न हो सम्मोहनों और अपमानों की।
मैंने यह किया, क्योंकि यह मेरा काम नहीं है कि मैं
उनको महसूल चुकाऊँ जिनके हाथों में है पुलिस और सत्ता।
मुझे किसी को रपट नहीं देना है
अगर मैं अपने आपसे कहूँ : यह एक ज़रूरत है।
और रोटी और प्रसिद्धि जो मुझे मिलती इस हुक्मबरदारी के लिए।
लेकिन एक दूसरी ही शक्ति मेरे अंदर जीती।
और दुनिया के ख़िलाफ़ अकेले। नहीं, अकेले नहीं :
जहाँ रात की पाली से लौटते हैं कामगार
और बच्चे खेलते हैं गेंद एक उनींदी गली में
जहाँ रुपहले भोजवृक्षों के पीछे धुआँ निकलता है एक गाँव की चिमनी से—
वे मेरे साथ हैं और मैं उनके साथ।
और अगर किसी पैमाने से, जिसे मैं नहीं जानता, नापा जाएगा
जीत गए लोगों के कड़वे आँसुओं को,
उनकी शांत चीख़, इसलिए भयावह।
आकाशचुंबी चमत्कारों के असंवेदनशील रचयिताओं में से
आज कोई एक भी जीवित न होगा।
नहीं, मैं निश्चय ही तुम्हें नहीं भूलूँगा
अगर मेरा हृदय फटा नहीं।
मुझे नसीब नहीं था तुम्हारे साथ सुख से रह पाना
मैं राज़ी हुआ था ख़ालीपन में दाख़िल होने इस भद्दे दरवाज़े से
क्योंकि मैं प्यार करता था
और काफ़ी शब्द नहीं थे, सुंदरतापूर्वक सजाए हुए।
- पुस्तक : दरवाज़े में कोई चाबी नहीं (पृष्ठ 112)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक अशोक वाजपेयी, रेनाता चेकाल्स्का
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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