फ़िलिस्तीन

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प्रभात मिलिंद

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फ़िलिस्तीन

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और अधिकप्रभात मिलिंद

     

    एक

    अभी तो ठीक से उसके 
    सपनों के पंख भी नहीं उगे थे 
    अभी-अभी तो रंगों को पहचानना 
    शुरू किया था उसने 
    अभी तो उसकी नाज़ुक 
    उँगलियों ने लम्स के मायने सीखे थे 
    और डगमगाते थे उनके नन्हें पाँव 
    तितली और जुगनुओं के पीछे दौड़ते हुए 

    अभी तो आँख भर दुनिया तक नहीं देखी थी 
    कि मूँद दी गईं उसकी आँखें 
    और, वह भी तब जब मुब्तिला था वह 
    ख़ूबसूरत परियों के साथ 
    नींद की अपनी बेफ़िक्र दुनिया में

    यह एक बच्चे की क्षत-विक्षत,
    रक्तस्नात और निश्चेत देह है 
    बच्चा अपने पिता की गोद में है
    जो उसे अपने सूखे होठों से बेतहाशा चूम रहा है
    और लिए जा रहा है सफ़ेद कफ़न में लपेटे...
    सुपुर्दे-ख़ाक करने उसको 

    हवा में मुट्ठियाँ लहराते हुए 
    नारे लगा रहे हैं कुछ बेऔक़ात लोग
    और पीछे-पीछे विलाप करतीं 
    औरतों का अर्थहीन समूह है...

    आप इस बच्चे की मासूमियत 
    और स्यापे पर हरगिज़ मत जाइए 
    कौम के लिए फ़िक्रमंद निज़ाम की नज़र में 
    यह बच्चा चैनो-अमन के लिए 
    ख़तरा साबित हो सकता था 
    ख़तरा भी ख़ासा बड़ा कि मारना पड़ा
    उसे मिसाइलों के इस्तेमाल से 
    और आँख भर दुनिया देखने के पहले
    बंद कर दी गईं उसकी आँखें हमेशा-हमेशा के लिए 

    यह जश्नों की ज़मीन है...
    ऐसे वाक़ये यहाँ रोज़मर्रा के नज़ारे हैं

    यहाँ बारूद की शाश्वत गंधों के बीच 
    बम और कारतूसों की दिवाली
    और सुर्ख़-ताज़ा इंसानी लहू के 
    साथ होली खेलने की रवायत है 

    यह एक ऐसा मुल्क है 
    जो चंद सिरफिरे लोगों के 
    तसव्वुर और फ़ितूर में ज़िंदा है फ़क़त 

    लेकिन कौम के फ़िक्रमंद निजाम के 
    ज़ेहन और दुनिया के नक्शे पर 
    तक़रीबन नहीं के बराबर है...

    यह फ़िलिस्तीन है!

    दो

    उन लोगों के बारे में सोच कर देखिए ज़रा 
    जिनकी कोई हस्ती नहीं होती 
    न घर अपना, न कोई मुल्क और मर्ज़ी...
    जो कई पीढ़ियों से अपनी जड़ें तलाश रहे हैं
    मुसलसल... इसी रेत और मिट्टी में 
    और बेसब्र हैं जानने के लिए 
    अपने होने का मतलब और मक़सद 

    जो बरसों-बरस से जलावतन हैं 
    अपने ही पुरखों की ज़मीन पर...
    हक़ और ताक़त की इस ज़ोर आज़माइश में 
    जो रोज़ किए ज़िबह किए जा रहे हैं
    बेक़सूर और बेज़ुबान जानवरों की तरह... बेवजह 

    कभी रही होगी यह सभ्यताओं के उत्स की धरती
    पैगंबर और मसीह की पैदाइश की पाकीज़ा ज़मीन
    फ़िलहाल तो यह यह मनुष्यता के अवसान की ज़मीन है

    इस ज़मीन पर बेवा और बेऔलाद हो चुकी 
    औरतों का समवेत विलाप अब 
    मरघट के उदास और भयावह कोरस 
    की तरह गूँजता है... अनवरत 

    ज़मींदोज़ होती बस्तियों में क़ब्रगाहों से भी 
    अब कम रह गई हैं मकानों की तादाद

    बेरुत हो कि बग़दाद...
    काबुल, समरकंद, कश्मीर या फिर गाजा 
    कभी इन्हें लोग दुनिया की ज़ीनत 
    और जन्नत कहते थे!

    अलादीन, सिंदबाद और मुल्ला नसीरुद्दीन के 
    क़िस्से पढ़ कर जाना था हमने भी 

    परीकथाओं के जादुई और ख़ूबसूरत शहर
    अब किसी सल्तनत की हरम की अधेड़ 
    और उजड़ी माँगों वाली रखैलें हैं
    उनके पूरे जिस्म और चेहरों पर 
    दाँत और नाख़ूनों के बेशुमार दाग़ हैं
    जिनसे रिसता रहता है ख़ून और मवाद... 
    लगातार और बेहिसाब 

    दरअसल सुदूर पश्चिम में अपने सुरक्षित शुभ्रमहल के भीतर 
    अमनपरस्त और तरक्क़ीपसंद हुक्मरान के किरदार में 
    नफ़ीस सूट पहने बैठा है जो शख़्स,
    नरमुंड के उस बर्बर सौदागर का उद्दीपन और पौरुष 
    आज भी ख़ून-मवाद की इसी गंध से ज़िंदा है!

    तीन

    बादलों और परिंदों की ख़ातिर अब कोई जगह नहीं है 
    अब काले-चिरायंध धुएँ से भरे आसमान में 
    बारूद की चिरंतन गंध ने अगवा कर लिया है 
    फूलों की ख़ुशबू... वनस्पतियों का हरापन 

    बच्चों का बचपन, युवाओं के प्रेमपत्र, 
    औरतों की अस्मत और बुज़ुर्गों की शामें 
    सब की सब गिरवी हैं आज जंग 
    और दहशतगर्दी के ज़ालिम हाथों... 

    जंग और फ़साद में ज़िंदा बच कर भी 
    जो मारे जाते हैं वे बच्चे और औरतें हैं
    मासूम बच्चे...मज़लूम बच्चे...अपाहिज बच्चे...यतीम बच्चे...
    बेवा औरतें...बेऔलाद औरतें...रेज़ा-रेज़ा औरतें...हवस की शिकार औरतें 

    बच्चे उस वक़्त मारे गए जब वे
    खेल रहे थे अपने मेमनों के साथ 
    औरतें इबादतगाहों में मरी गईं... या फिर बावर्चीख़ानों में 
    बुज़ुर्ग मसरूफ़ थे जब अमन के मसौदे पर बहस में तब मारे गए
    और, जवान होते लड़कों को तो 
    मारा गया बेसबब... सिर्फ़ शक की बिना पर 

    नरमुंडों की तिजारत करने वाले हुक्मरानों!
    इस पृथ्वी पर कुछ भी नश्वर नहीं...
    न तुम्हारी हुकूमत और न तुम्हारी तिजारत
    कुछ बचे रहेंगे तो इतिहास के कुछ ज़र्द पन्ने 
    और उन पन्नों में दर्ज तुम्हारी फ़तह के टुच्चे क़िस्से

    सोचो ज़रा, जब कौमें ही नहीं बचेंगी 
    तब क्या करोगे तुम तेल के इन कुँओं का 
    और किसके ख़िलाफ़ काम आएगी असले और बारूद की 
    तुम्हारी ये बड़ी-बड़ी दुकानें!

    एक सियासी नक्शे से एक मुल्क को 
    बेशक खारिज़ किया जा सकता है 
    लेकिन हक़ की लड़ाई और आज़ादी के 
    सपनों को किसी क़ीमत पर हरगिज़ नहीं 

    इसी रेत और मिट्टी में एक रोज़ फिर से बसेंगे 
    तंबुओं के जगमग और धड़कते हुए डेरे 
    बच्चे फिर से खेलेंगे अपनी नींदों में परियों के साथ
    और भागते-फिरेंगे अपने मेमनों के पीछे 

    औरतें पकाएँगी ख़ुशबूदार मुर्ग-रिज़ाला 
    और खुबानी-मकलुबा मेहमानों की ख़िदमत में
    सर्दियों की रात काम से थके लौटे मर्द 
    अलाव जलाए बैठ कर गाएँगे अपनी पसंद के गाने 
    बुजुक और रवाब की धुनों पर 

    एक दिन लौट आएँगे कबूतरों के परदेशी झुंड 
    बचे हुए गुंबद और मीनारों पर फिर अपने-अपने बसेरों में 

    देखिए तो सिर्फ़ एक अंधी सुरंग का नाम है यह 
    सोचिए तो उम्मीद और मुख़ालफ़त की एक लौ है फ़िलिस्तीन!

     
    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रभात मिलिंद
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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