पिता क्यों नहीं आते?

pita kyon nahin aate?

जयाप्रभा

जयाप्रभा

पिता क्यों नहीं आते?

जयाप्रभा

और अधिकजयाप्रभा

    माँ का आँचल खींचते हुए—

    माँ! यह रेलगाड़ी रुकेगी कब?

    ऊबी हुई बच्ची की पूछताछ

    वह बीमार माँ स्तन से दूध नहीं पिला सकती

    डिब्बे के दूध से बेटा बीमार है

    सोच में पड़ी वह माँ भी बिसूरती है

    आख़िर यह गाड़ी रुकेगी कब

    कंधे पर एक साल का बेटा

    कभी उसका रोना बंद नहीं होता

    क्या करे कुछ समझ में नहीं आता

    उसका रोना कभी थमता नहीं

    खड़े-खड़े बेटे को ढोते हुए

    हाथ-पैर दुखने पर भी बैठती नहीं वह

    कहीं किसी को तकलीफ़ हो

    मायूस हो वह बच्चे को पुचकारती है-

    सो जा मेरे बेटे-

    कमज़ोर माँ थकी-हारी

    बच्चे के पेशाब से गीली साड़ी

    ठंडी हवा के कारण और तंग कर रही है

    अब और बच्चे को ढोने की ताक़त नहीं बची

    क्या रीढ़ की हड्डी भी दुखने लगी!

    फिर भी झेलना है

    देश-सेवा के वास्ते सहना है

    रीति-रिवाजों के नाते झेलना है

    सबसे बढ़कर

    औरतों की तकलीफ़ों से प्रेरणा लेकर आने वाले समयों में

    कविश्रेष्ठों को माँओं पर कविताएँ लिखना है

    उसके लिए ही सही, सहना है!

    वह बहुत छोटा बच्चा है

    इसीलिए उसने मातृत्व के बड़प्पन को नहीं जाना

    वह अब भी रोने की साधना कर रहा है

    …माँ मुझे पिता चाहिए!...

    छोटे भाई के रोने से माँ कहीं उसकी उपेक्षा कर दे

    माँ का आँचल खींचते हुए

    थकी हुई बच्ची पटकती है हाथ-पाँव

    …स्टेशन पर पहुँचते ही पिता आएँगे, बेटी!...

    (ठीक इस समय कवि महोदय मातृ-महिमा का गुणगान करते हैं और

    सहनशक्ति में माताओं की धरती माँ से तुलना करते हैं)

    …पिताजी रेलगाड़ी में हमें बिठाने आते हैं

    पर हमारे साथ रेलयात्रा करने कभी क्यों नहीं आते?...

    फिर से बच्ची सीधे और तल्ख़ी से

    अपना संशय प्रकट करती है

    तब तक वह माँ 'गृहिणी' के बोझ के नीचे दब चुकी होती

    इसीलिए यह कह नहीं पाती

    पड़े कामकाजों को छोड़

    नए कामों के बहाने बनाते

    हमसे छुटकारा पाने के लिए

    पिता लोग कभी साथ नहीं आते

    ...माँ आइसक्रीम ख़रीदो ना!...

    उसकी यह माँग ग़लत तो नहीं

    आख़िर बच्चों के भी तो हक़ होते हैं

    ...शश्ऽऽऽ! मुझे तंग मत कर...

    माँ ने डाँटा जिसके पास एक कौड़ी भी नहीं बची आख़िर

    मन में जो नाराज़गी है वह आख़िर किस पर उतारती?

    आँसू को पलकों से गिरने की मनाही है!

    आख़िर वह भी आदर्श गृहिणी जो है!

    रेल के डिब्बे में एक तरफ़

    दो खद्दरधारी गुंडे

    अख़बार से राजनीति का नाश्ता कर रहे हैं।

    एक कोने में मज़े से बैठकर

    पापड़ बेलन पकड़े मोटी-सी मौसी का

    चित्र खींचने में मशगूल कार्टूनिस्ट

    धुआँ उगलने वाली कॉफ़ी की चुस्की लेते हुए धुआँ चेहरा

    घनी दाढ़ी में अँगुलियाँ फिरा रहा है!

    अहो मातृत्व कहते हुए

    अर्द्ध-निमीलित

    अपनी अर्द्धांगिनी की सेवाओं को स्वीकार करते हुए

    औरतों के श्रम शोषण के बारे में

    कभी-कभी ज़ोरदार कविताएँ लिखने वाले

    एक वामपंथी कवि महोदय भी विराजमान हैं।

    लेकिन

    ढेर सारे सामान के साथ बच्चों को

    उनकी माँओं को रेलगाड़ी में बैठाकर

    उसके बाद सीटी बजाते हुए मज़े से

    सेकेंड शो सिनेमा...ताश खेलने... अन्य ऐय्याशी के कामों में जुट जाने वाले

    पिता के बारे में अनभिज्ञ

    मायूस बच्चे

    सफ़र के वक़्त

    अकेली और निस्सहाय

    माताएँ ही क्यों इस तरह दुःख झेलती हैं

    उद्विग्न होकर बच्चे

    कभी-कभी मचल कर सवाल पूछते हैं

    आख़िर हमारे साथ पिता क्यों नहीं आते?

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द सेतु (दस भारतीय कवि) (पृष्ठ 59)
    • संपादक : गिरधर राठी
    • रचनाकार : कवयित्री के साथ पी.वी नरसा रेड्डी एवं देवीप्रसाद मित्र
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1994

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