आस्थाक परिधि आ मोन
छहछह उमकैत
पानिक लहरि सुन हमर चेष्टा
अनभुआर
शत-शत फुटैत धुम्राँक गुब्बारामे
अनेरो
औंधायल भसियायल जा रहल अछि।
अनठौने छी हम अपना भरि
पन सहज सहृदयतासँ,
किन्तु छिलकि जाइत अछि
पछबाक सिहकी जकाँ
सिटिया कऽ
आकांक्षा विभ्राट आबर्त,
की सत्ते?
एक दिस
वैतालक ताल ठोकि
कर्म
जिज्ञासा
हुलकी मारि चैलेन्ज करैत अछि हमर व्यवस्थाकेँ;
आ दोसर दिस—
अनुरागक लालीकेँ समेटि
क्रमात बढ़ैत आबि रहल अछि—प्रात,
प्रातक सम्राट
आ सूरुज भैयाक असँख्य गँहिकी नजरिक प्रहार।
चुप रहितहुँ छी चञ्चल वक्ता
अपनेमे;
बैसल रहितहुँ छी व्यस्त—
कार्य सम्पादनमे
आदिसँ
एखनधरि
आ नहि जानि कहिया घरि एहन स्थिति रहत।
संयोग हमर सङी अछि
आक्रोश हमर पैरुख अछि
आ परिवर्त्तनसँ पैंच-उधार लऽकऽ
—जे किछु कयलहुँ अछि
—वैह हमर संबोधन अछि
एही हेतु चललहुँ,
आ चलि रहल छी आगू
आस्थाक सम्पुष्टिकेँ बनाकऽ
अपन आधार।
- पुस्तक : मैथिलीक नव कविता (पृष्ठ 102)
- संपादक : रामकृष्ण झा ‘किसुन’
- रचनाकार : रमानन्द रेणु
- प्रकाशन : सांस्कृतिक विभाग, बिहार
- संस्करण : 1971
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.