नगर के एक वरिष्ठ नागरिक ने अच्छाई और बुराई के संबंध में जिज्ञासा प्रकट की।
उत्तर मिला :
मैं केवल तुम्हारे अंतःस्थित अच्छाई के संबंध में कह सकता हूँ—बुराई के संबंध में
नहीं।
कारण, बुराई क्या है? अच्छाई अपनी ही भूख-प्यास से संतप्त होती है तो बुराई का
रूप ले लेती है।
जब अच्छाई की क्षुधा जाग उठती है तो वह अंधकारपूर्ण कंदराओं में भी तृप्ति के
अर्थ जाता है, और जब वह प्यासा होता है तो वह गंदला जल पीने को भी आतुर हो जाता
है।
तुम तभी तक अच्छे रह सकते हो, जब तक तुम अपने में स्थित रहते हो।
किंतु जब तुम अपने में स्थित नहीं रहते, तब भी तुम निकृष्ट नहीं हो जाते, विभक्त
ही होते हो।
और, केवल विभक्त होने में ही कोई घर चोरों का अड्डा नहीं बन जाता।
पतवार रहित नौका द्वीपों में निरुद्देश्य घूमती अवश्य है, डूबती नहीं।
तुम तभी अच्छे होते हो, जब अपने अंतर से दूसरे की झोली भरते हो।
किंतु अपने लाभ का लोभ भी तुम्हें बुरा नहीं बना देता। जब तुम स्वहित-संपादन
करते हो, तो तुम उस वृक्ष की जड़ के समान हो जो स्वार्थवश पृथ्वी के वक्ष पर अपना पूर्ण
स्वत्व समझ लेता है।
सच तो यह है कि फल कभी जड़ों से नहीं कह सकता कि तुम भी मेरे ही समान
बनकर पको और भरपूर होकर प्रदान करो।
क्योंकि फल का हित इसी में है कि वह दान करे और जड़ का हित इसी में है कि वह
ग्रहण करे।
तुम तब अच्छे होते हो, जब तुम पूर्ण जागरण में बोलते हो। लेकिन जब सोते हुए तुम्हारी
जिह्वा लड़खड़ाती है तब भी तुम अधम नहीं बन जाते।
कई बार वह हकलाती जिह्वा का भाषण भी निर्बल वाणी का पोषक बन जाता है।
तुम अच्छे होते हो, जब तुम अपने ध्येय की ओर दृढ़ता और साहस के साथ बढ़ते हो।
लेकिन यदि लंगड़ाते हुए बढ़ते हो, तो भी तुम नीच नहीं बन जाते।
लंगड़ा कर चलने वाले भी आगे ही बढ़ते हैं, पीछे तो नहीं मुड़ते।
परंतु, तुम जो अच्छे और शीघ्रगामी हो, इस बात का ध्यान रखो कि तुम लंगड़ों के
साथ दयापूर्ण सहानुभूति दिखलाने को ही लंगड़ाने न लग जाओ।
तुम अंसख्य रीतियों से श्रेष्ठ हो—और जब तुम श्रेष्ठ नहीं होते तो भी अधम नहीं हो जाते।
तब तुम केवल प्रमाद और पलायन के शिकार मात्र होते हो।
दुःख यही है कि मृग कछुए को द्रुतगामी बनने की शिक्षा नहीं दे सकता।
अपने महान 'स्व' को पाने की तुम्हारी अनवरत अभिलाषा में ही तुम्हारी श्रेष्ठता निहित
है। और वह अभिलाषा तुम सबमें एक समान है।
किंतु तुममें कुछ ऐसे हैं, जिनमें इस आत्मशोध की कामना उस जलधारा के समान है,
जो हिमावृत्त गिरिशिखरों के रहस्य और विस्तृत अरण्यों के संगीतों को झोली में छिपाए
सदा समुद्र की ओर दौड़ा करती है।
और कुछ ऐसे हैं, जिनमें यह कामना उस मैदानी नदी का रूप ले लेती है, जो समुद्र
तक पहुँचने से पूर्व ही अनेक धाराओं में बंटकर मंद होते-होते धरती में हो खो जाती है।
लेकिन ऐ पहुँचे हुए साधको! तुम अपने इन मंदगामी आत्मशोधकों से यह न कहना
कि तुम इतने मंद और श्लथ किसलिए हो?
क्योंकि जो सचमुच श्रेष्ठ होते हैं वे कभी नग्न व्यक्ति से यह नहीं पूछते कि तुम्हारे वस्त्र
कहाँ हैं? न ही वे किसी अभागे निराश्रित से पूछते हैं कि तुम्हारे घर का क्या हुआ?
- पुस्तक : मसीहा
- रचनाकार : ख़लील जिब्रान
- प्रकाशन : राजपाल एंड संस
- संस्करण : 2016
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