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एक स्त्री का डर

ek stri ka Dar

पूनम शुक्ला

पूनम शुक्ला

एक स्त्री का डर

पूनम शुक्ला

और अधिकपूनम शुक्ला

    जब लड़कियाँ चलती हैं

    गली मुहल्लों के रास्ते

    वे रास्ते थामते हैं उनकी सिहरी हुई देह

    कच्ची सड़कों पर उड़ती हुई धूल

    रोज सहलाती है उनका बुझा हुआ मन

    बुझे हुए रास्तों के बल्ब

    जल जाना चाहते हैं

    उनके डरे क़दमों की आहट से

    दरअसल बहुत डरती हैं स्त्रियाँ

    स्त्रियाँ बनने से पहले

    स्त्रियाँ बनते ही बदल जाता है उनका डर

    अब डर आगे नहीं उनके पीछे चलता है

    कभी-कभी रास्ता भी उन्हें ताकता रह जाता है

    वे बुझे हुए बल्बों के बीच

    चाँद से रोशनी माँग लाती हैं

    उड़ती हुई धूल के बीच

    अपने मन में फूल टाँकती हैं

    तपती दोपहर उन्हें शीतल छाँह लगती है

    और अपना शीतल घर जलती हुई भट्ठी

    जहाँ घुसते ही डर उनके सामने खड़ा हो जाता है

    वे सिहरती हैं तानाशाहों की आवाज़ पर

    वे सहमती हैं बच्चों की चीख़ पुकार पर

    वे जली कटी सुनते हुए भी जलने नहीं देतीं रोटी

    वे तीखी आवाज़ों के बीच कुछ मीठा परोसती हैं

    कलह के बीच वे पालती हैं शाँति के कबूतर

    इस तरह धीरे-धीरे वे अपने विशाल डर को

    अपना मित्र बनाती हैं

    धीरे-धीरे समय बीतता है

    बच्चे बड़े होते हैं धीरे-धीरे

    धीरे-धीरे छोटा होता जाता है एक स्त्री का डर।

    स्रोत :
    • रचनाकार : पूनम शुक्ला
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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