एक सपना
ek sapna
मैं सफ़र में हूँ। मेरे जूते गुम हो चुके हैं।
एक निर्जन घर के पीछे चेरी के दरख़्तों पर बौर आया हुआ है।
बाड़ें टूटी हुई। पैर धूल-सने और बिवाइयों से टीसते हुए।
मैं घास पर टेक लेता हूँ और सो जाता हूँ।
खुली खिड़की से मेरी दृष्टि एक सफ़ेदी किए हुए
ठंडे कमरे में जा पहुँचती है।
स्वप्न में मुझे एक बूढ़ा आदमी दिखाई देता है
नंगे पैरों एक कैनवस के सामने खड़ा।
उसकी पीठ मेरी ओर है। हल्के से झुककर
वह कुदकता है सुबह की धूप में
और नन्हें-नन्हें डेशों से दक्षतापूर्वक उभारता है
जूतों का एक जोड़ा, मुलकता हुआ।
कैसा सहज भाव! और पेंट की गंध!
तीखा, तेलौंसा, गीला ब्रश आड़े प्रकाशदंड में झलमलाता हुआ,
उसका एक-एक बाल।
समय गुज़रता है। दो नन्हें फीतादार बूट वह पेंट करता है
कोमल और ललछों-भूरे, अग़ल-बग़ल, थोड़ा सा आड़े-तिरछे,
मुलायम घास पर रखे। उनके चमड़े की गंध
मुझे अपने नथुनों में महसूस होती है।
उनकी जीभ की धुँधली चमक मुझे दिखाई देती है।
उनमें लगे एक-एक हुक और आँख को में गिन सकता हूँ।
कलाकार की कल्पना के सिवा, कैनवस पर, दृश्य रूप में
कहीं-कोई जूते नहीं हैं।
बाहर सड़क से लोगों की अस्पष्ट आवाज़ें सुनाई दे रही हैं,
कुत्तों का भौंकना, हो-हल्ला, क्या कहीं गोली दगी?
तुम जो करते हो क्यों करते हो? स्वप्न में मैं पूछता हूँ।
तुम्हारे पास चमड़ा नहीं है? —वह कान नहीं देता।
—सुंदर। हाँ, वे सुंदर हैं, लेकिन इसका अर्थ क्या है?
क्या इससे पैसा मिलता है?
अब यह हँस पड़ता है, मेरा विश्वास।
—अलावा इसके, वे पुराने और घिसे हुए हैं।
यह मेरी अनसुनी कर देता है,
चित्र को सरसरी तौर पर देखता है, कंधे उचकाता है
और चला जाता है। फीतेदार जूते नन्हें ही बने रहते हैं
स्नेहिल, सोते हुए दो ख़रगोशों-जैसे, घास में।
- पुस्तक : रोशनी की खिड़कियाँ (पृष्ठ 382)
- रचनाकार : हंस माग्नुस एन्त्सेंसबर्गर
- प्रकाशन : मेधा बुक्स
- संस्करण : 2003
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