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एक रात

ek raat

नींद नहीं मुझको आती है, दीप नहीं कोई जलता,

चारों ओर घिरा जो मेरे अँधियाला मुझको सलता,

खुट-खुट की आवाज़ें कितनी आती कानों में मेरे,

रात नापने को बैठी हैं घड़ियाँ ज्यों मुझको घेरे।

भाग्य देवियों, छेड़ पुराना बैठी हो पचड़ा-परपच,

नींद नशीली, झोंकों वाली होती यह रस-रात, वरच,

चूहे जैसे काट-कुतर की कते रातों में आवाज़,

वैसी ही ध्वनियों से जीवन करता है मुझको नासाज़।

बतलाओ मतलब है क्या इन धीमी-धीमी बातों का,

ईश्वर जाने क्या शिकवा है इन दुखियारी रातों का।

क्या बताओगी यह मुझसे तुम किस चिंतन में रहती,

मुझको आमंत्रित करती या बात भविष्यत् की कहती।

हाय, बताए कोई आकर मुझको शब्दों के माने,

जो कानों में कहती रहती रात अँधेरी अनजाने।

स्रोत :
  • पुस्तक : चौंसठ रूसी कविताएँ (पृष्ठ 71)
  • रचनाकार : अलेक्सांद्र पूश्किन
  • प्रकाशन : राजपाल एंड संस
  • संस्करण : 1964

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