एक दिन शील जी के घर
ek din sheel ji ke ghar
तलघर के उस कमरे में
तामचीनी के कुछ बर्तन और पुरानी पत्रिकाएँ थीं
मैलखोरे रंग की चादर बिछी थी खटिया पर
पास में एक घड़ा रखा था
हर तरफ़ रंग में रंग और आयु में आयु का मेल था
पुरानी दुर्लभ पत्रिकाओं में
दबी रह गई थी आशा
पुरानी दुर्लभ पुस्तकों की जिल्दों में
धुँधले पड़ चुके थे उनके शब्द
भीतर घुसते ही मैं जान गया था
कि मृत्यु ने इस कमरे में अपना अलाव सुलगा लिया है
दिनों ने हफ़्तों को कुतरना शुरू कर दिया है
और बहुत जल्द यह खाँसी अब थमने वाली है
चाय या काफ़ी?
नहीं कुछ नहीं
सिर्फ़ अनसुने एकांत में सुनाई दिया
किसी स्त्री का विलाप...
‘ये मुझे सहारा देते तो इतने अवश अकेले नहीं होते...
सिर्फ़ तनिक-सी ठौर
और पीले पड़ते काग़ज़ों में कहीं न कहीं मैं...’
कहते हैं
मृत्यु ले गई उन्हें
वे हारे नहीं थे
स्रोत:

आशा नाम नदी (Pg. 12)
- लेखक: ऋतुराज
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- संस्करण: first
- प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
- प्रकाशन वर्ष: 2007
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