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एक दिन

ek din

पृथ्वी पर जन्मे

असंख्य लोगों की तरह

मिट जाऊँगा मैं।

मिट जाएँगी मेरी स्मृतियाँ

मेरे नाम के शब्द भी हो जाएँगे

एक-दूसरे से अलग

कोश में अपनी-अपनी जगह पहुँचने की

जल्दबाज़ी में

अपने अर्थ तक समेट लेंगे वे।

'शलभ' कहीं होगा

कहीं होगा 'श्रीराम'

और 'सिंह' कहीं और।

लघुता-मर्यादा और हिंस्र पशुता का

समन्वय समाप्त हो जाएगा एक दिन

एक दिन

असंख्य लोगों की तरह

मिट जाऊँगा मैं भी।

फिर भी रहूँगा मैं

राख में दबे अंगार की तरह

कहीं कहीं अदृश्य, अनाम, अपरिचित

रहूँगा फिर भी—फिर भी मैं!

स्रोत :
  • पुस्तक : उन हाथों से परिचित हूँ मैं (पृष्ठ 15)
  • रचनाकार : शलभ श्रीराम सिंह
  • प्रकाशन : रामकृष्ण प्रकाशन
  • संस्करण : 1993

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