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क्या पता था

बचपन में बार-बार चूमे गए हमारे माथे

एक दिन सिलवटों से परेशान हो जाएँगे

परेशान हो जाएँगे

दुखती कनपटियों से

दिमाग़ को तड़काने वाली माथापच्चियों से

पसीने की वक़्त बेवक़्त चुहचुहाने की आदत से

दिन-रात चिंताओं में खपेंगे

बार-बार ठनकेंगे

बार-बार धुने और पीटे जाएँगे

क्या मालूम था

अशीर्वचनों से दीप्त हमारे मस्तक

एक दिन ढोएँगे

दुर्भाग्य की लकीरें

सीधी पड़ती धूपों का दाह

रोज़-रोज़ होने वाली दर्दनाक कपाल-क्रियाएँ

क्या ख़बर थी

द्वादशी की चाँदनियों से होड़ लेते हमारे ललाट

एक दिन तरस जाएँगे

गर्म हथेलियों के लिए

तितली की तरह इधर-उधर उड़ती लटों के लिए

दुश्चिंताओं के बीच दिपदिप किसी अपूर्व विश्वास के लिए

नहीं सोचा था हमने कभी

एक दिन हमारे सारे दिठौने

अचानक धुल जाएँगे

वक़्त की तेज़ बारिश में

स्रोत :
  • पुस्तक : साक्षात्कार 290 (पृष्ठ 49)
  • संपादक : हरि भटनागर
  • रचनाकार : सत्येंद्र कुमार रघुवंशी

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