शमशेर और मुक्तिबोध की स्मृति में
प्रेम के सबसे सघन कवि को प्रेम नहीं मिला
उसके सामने दूध रोटी दवा का हिसाब था
जिसे यह कभी समझ नहीं पाता
दुनिया आईनों से भरी हुई थी जिन्हें वह स्याही की तरह
अपने अंतर्जल में घोलता रहा
मनुष्य की भाषाएँ तमाम बोली कबूतरों की
उसकी तड़प को उठाने में असमर्थ थीं
वह बहता रहा प्यास के पहाड़ों पर सुंदरता का प्रपात
यातना के सबसे बीहड़ कवि को यातना ही मिली
कड़ी मारें और एक से एक दुःस्वप्न
वही था प्रेम के कवि का एक सच्चा दोस्त
वह एक जंगल की तरह था बार-बार अपने पत्ते गिराता हुआ
अपने शब्दों को काटता
उसे चौराहे ही मिले जीवन में भागता रहा दम छोड़
जिन्होंने संसार में प्रेम नष्ट किया यातना पैदा की
उसने देखे रात में उनके जगमग जुलूस
इन दिनों वे दिन में भी जगह-जगह निकलते दिखते हैं
यातना का कवि जल्दी ही इस संसार से चला गया
तब प्रेम के कवि ने सोचा मुझे रहना चाहिए यहाँ कुछ दिन और
अंततः प्रेम ही है यातना का प्रतिकार
अन्याय का प्रतिशोध
फिर वह अकेला झेलता रहा सारी यातना रह सका जितनी देर।
- रचनाकार : मंगलेश डबराल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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