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धुंध के उस पार

dhundh ke us paar

शैरिल शर्मा

शैरिल शर्मा

धुंध के उस पार

शैरिल शर्मा

और अधिकशैरिल शर्मा

    वह मुस्कराई थी

    जैसे किसी पुरानी दुपहर में

    धूप की एक सलवट

    धीरे से सरक आई हो

    चुपचाप।

    उसकी आँखों में

    कोई मौसम बीत रहा था

    एक अधूरी धूप

    एक आधे रंग की रात,

    जैसे रौशनी ने

    कहीं पहुँचकर

    थोड़ी देर के लिए

    ठहरना सीख लिया हो।

    मैं देखता रहा

    तुम्हारी पलकें

    ठंडी ज़मीन पर

    गिरी हुई

    पहली फुहार की गंध थीं

    कुछ नम,

    कुछ थकी हुई,

    जैसे कोई दुआ

    अपने उच्चारण से पहले

    पलकों में सो गई हो।

    तुम्हारे चश्मे के काँच से परे

    एक और दृश्य था

    जिसे मैं देखता नहीं था,

    सुनता था

    तुम्हारी आँखों की

    धीमी भाषा में।

    वहाँ

    मेरा नाम

    किसी भूले हुए अक्षर की तरह

    फिर से लिखा जा रहा था,

    जैसे कोई स्पर्श

    जो कभी कहा नहीं गया।

    एक बार

    बहुत पास से पूछा मैंने

    ‘बिना चश्मे के भी

    क्या मैं ठीक दिखाई पड़ता हूँ तुम्हें?’

    वह हँसी नहीं

    सिर्फ़ एक झपकन थी

    हल्की, अनकही,

    जैसे कोई कविता

    अपने सबसे पारदर्शी शब्द में

    ख़ामोश हो जाती है।

    फिर बोली

    ‘धुंध में भी

    तुम वैसे ही हो

    जैसे सपना जागते हुए दिखे

    हल्का, लेकिन पूरा।’

    उस क्षण,

    तुम्हारी पलकों की झील में

    एक झलक डाली

    तब पाया,

    मैं नहीं था वहाँ,

    बल्कि मेरी अनकही बातें,

    धीरे-धीरे तैर रही थीं

    जैसे किसी पुराने चित्र की

    धूल में ढकी हुई रौशनी

    जिसे बस महसूस किया जा सकता है,

    देखा नहीं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शैरिल शर्मा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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