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देवी

dewi

सूर्यकिरण की रेखा-सी चौंधिया देती हो

मेरी आत्मा का अभ्यंतर।

अपना प्रेम और प्रार्थनाएँ लिए खड़ी हूँ

तुम्हारे आगे

आकुल और अनाथ

कहीं से बूँदभर गर्म ख़ून

छिटककर आया है मेरी अँजुली में

मान लेती हूँ उसे तुम्हारा आशीर्वाद।

यह ख़ून का छींटा कहाँ से आया

किस बकरे, किस भैंसे,

किस कुँआरी, किस जीव से

कहाँ से! कहाँ से!

मैं सवाल नहीं कर रही तुमसे

बलि का यह ख़ून पी जाने की आदत से गढ़ा

तुम्हारा उल्लास

मुझे रह-रहकर बनाता है नासमझ और जड़

तुम्हारे आसन के अस्तित्व के आगे

अवाक् हूँ मैं हमेशा से।

युग-युग की ख़ामोशी से गढ़ी

तुम्हारी इस स्मित मुस्कान से

उभर आती है जो स्पर्धा

दुनिया उसे शक्ति कहकर पुकारती है

पुकारती है, दुर्गतिनाशिनी अभयवर दायिनी।

मेरा मुँह क्यों नहीं खुलता

तुम्हें माँ कहकर पुकार तक नहीं पाती।

मुझे लगता है

इंसान का विश्वास और वासना ही

विराजमान हैं आसन पर सज-धजकर

आदि-माँ रक्तमुखी देवी बन चमक रही है।

स्रोत :
  • पुस्तक : खो जाती है लड़कियाँ (पृष्ठ 92)
  • रचनाकार : गायत्रीबाला पंडा
  • प्रकाशन : आलोकपर्व प्रकाशन
  • संस्करण : 2017

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