मेरे गुरुदेव

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वल्लत्तोल

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मेरे गुरुदेव

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    ‘यह लोक ही मेरा कुटुम्ब है;

    तृण-पल्लव कीट-पतंग ही मेरे परिजन हैं;

    त्याग ही सम्पत्ति है; विनय ही उन्नति है—’

    ऐसा मानने वाले योग के ज्ञाता मेरे गुरुदेव की जय हो!

    तारक-रत्न-माल्य पहनाया जाए तो भी ठीक, और

    काले मेघों से ढक दिया जाए तो भी ठीक!

    वे हैं सर्वथा निःसंग, निर्लिप्त! सम स्वच्छ

    आकाश जैसे हैं मेरे गुरुदेव!

    मेरे गुरुदेव ऐसे दुर्लभ तीर्थ-हृदय हैं जो दुर्जन्तु-रहित हैं,

    वे ऐसे हैं जिनसे कालिमा नहीं फैलती,

    वे ऐसे माणिक्य महानिधि हैं जिन पर सर्पों की छाया

    भी कभी नहीं पड़ी

    मेरे गुरुदेव ऐसी चाँदनी हैं जिसने कभी छाया नहीं

    डाली

    बिना शस्त्र के धर्म-युद्ध करने वाले

    बिना पुस्तक के पुण्याध्ययन करने वाले

    बिना औषधि के रोग नष्ट करने वाले

    बिना हिंसा-दोष के यज्ञ करने वाले हैं मेरे गुरुदेव!

    शाश्वत अहिंसा है उन महात्मा का व्रत

    शांति प्रारंभ से ही उनकी इष्ट देवी है

    वे कहा करते हैं, ‘अहिंसा-रूपी कवच किस

    तलवार की धार नहीं मोड़ देता?’

    अहिंसा-रूपी पत्नी से मिले धर्म का सरस संलाप,

    आर्य-सत्य की सभा का संगीत एवं

    मुक्ति के रत्न-मंजरी की झनकार हैं—

    मेरे गरुवर्य के शोभन वचन!

    प्रेम से लोक को जीतने वाले इस योद्धा के लिए

    प्राण ही मनुष्य है, आत्मा ही बाण, और ब्रह्म ही लक्ष्य!

    ओंकार को भी धीरे-धीरे पिघलाकर वे

    उसका एक सूक्ष्मतम अंश ही अपने लिए लेते हैं

    भगवान् ईसा का त्याग, साक्षात्

    श्रीकृष्ण का धर्म-रक्षा-उपाय

    बुद्धदेव की अहिंसा, शंकराचार्य की प्रतिभा

    रन्तिदेव की करुणा, हरिश्चन्द्र का सत्य

    मुहम्मद की स्थिरता सब एक साथ

    एक व्यक्ति में देखना हो तो

    आइए मेरे गुरु के पास

    उनके चरणों का दर्शन कर लेने पर

    एक बार कायर भी धीर बन जाता है; क्रूर भी कृपालु

    कृपण भी दानवीर, परुषवादी भी प्रियवादी

    अशुद्ध भी परिशुद्ध और आलसी भी परिश्रमी बन जाता है

    चारों ओर शांति फैलाने वाले उस तपस्वी के सामने

    आततायी की कटार नीलोत्पल-माला है

    द्रष्टा-कराल केसरी, मृग-शावक और

    भयंकर लहरें उठाने वाला सागर क्रीड़ा-पुष्करिणी है!

    गंभीर कार्य-चिंतन के समय उस नेता के लिए

    कानन-प्रदेश भी कांचन-सभा-मंडप है

    निश्चल समाधि में स्थित होने पर उस योगी के लिए

    नगर-मध्यस्थल भी पर्वत-गुहांतर है

    उस धर्म-कर्षक का सत्कर्म, खेत-खेत में

    शुद्ध स्वर्ण ही पैदा करता है

    और उस सिद्ध की आँखें स्वर्ण को भी

    इस भूमि की पीली मिट्टी-जैसा ही देखती हैं।

    उस महा-विरक्त के लिए संपूज्य साम्राज्यश्री भी

    चामर-चलन से दाँत दिखाने वाली पिशाचिनी है

    किसी मृदुतम, कुसुम-कोमल चरण को भी पीड़ा हो

    इसलिए जो महात्मा स्वातंत्र्य के दुर्गम मार्ग पर रेशमी

    पांवड़े बिछा रहे हैं

    वह महानुभाव स्वयं वल्कल का टुकड़ा

    पहनकर सदा अर्धनग्न रहते हैं!

    गीता-जननी भारत-भूमि ही

    ऐसे किसी कर्मयोगी को जन्म दे सकती है

    हिमवत्-विंध्याचल, मध्य प्रदेश में ही

    शम की साधना करने वाला ऐसा सिंह दिखाई देगा

    गंगा नदी जिस प्रदेश में प्रवाहित होती है उसी में

    मंगल-फल देने ऐसा कल्प-वृक्ष उग सकता है

    नमस्ते गतवर्ष! नमस्ते दुराधर्ष।

    नमस्ते सुमहात्मन्! नमस्ते जगद्गुरो!

    स्रोत :
    • पुस्तक : वल्लत्तोल की कविताएँ (पृष्ठ 65)
    • रचनाकार : वल्लतोल
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1983

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