हे हमर तत्सत्
हे हमर तत्सत्, अमर चित्! चेतना खर प्रणवमय हे!
रस-कलश वसुधा सुधाकेर तृषित प्राणक मधु-मलय हे!!
अहाँ कहियासँ कहाँ छी नुकायल कहुँ जग-जहाँमे।
ताकि रहलहुँ दूर लग कत, युग-युगहुसँ कहु, कहाँ ने॥
कतयसँ धुनि सुनि रहल छी, किन्तु व्यञ्जित रूप नहि हो।
लक्षणा दुर्बोध, अभिधा अहँक कखनहु चूप नहि हो॥
वज्र-निकुञ्जक लता-पुञ्जक बीचसँ ध्वनि गुञ्जना ई।
आबि रहले, गाबि नहि सकले हमर स्वर-व्यञ्जना ई॥
गहन वनमे वेणु वनमालीक बजइत सुनि रहल छी।
एम्हर राधा विरह बाधा बढ़ल भूतल, गुनि रहल छी॥
सहसनामहुसँ बजा रहलहुँ कते दिनसँ अहाँके।
स्तवन कीर्तन नामधुनि—की ने सुना रहलहुँ अहाँके॥
अदबसँ सिजदा करी, शर्मन पढ़ी, गुरुवचन बाँची।
साधु-सन्त समाज मीरा घुघुरु धुनि कत नाच नाची॥
ज्ञान-विज्ञानक प्रमाण-प्रमेय वातायनक बीचहु।
निगम-आगम विधि-विधानक सरल-वङ्किम ऊँच-नीचहु॥
खोज-बीनहु, ताक-हेरहु, थाकि गेलहुँ बाट-घाटे।
अहाँ कहुँ नहि भेटि रहलहुँ, हन्त! कान्तहु चित्त आँटे॥
कहु, कहाँ धरि जीव-जीवन पल-पलक सहते प्रतीक्षा।
की न गुरु-गौरव कृपाऽमृत, की न ज्योतिर्मयी दीक्षा॥
हमर आदि-अनादि अन्त-अनन्त नितनूतन-चिरन्तन।
हे हमर तत्सत् अमर! हरबे हरे!बन्धन-निबन्धन॥
- पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 61)
- संपादक : चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’/ शंकरदेव झा
- रचनाकार : सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2012
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