डिप्रेशन के शाम की चाय

depression ke sham ki chay

घुँघरू परमार

घुँघरू परमार

डिप्रेशन के शाम की चाय

घुँघरू परमार

और अधिकघुँघरू परमार

    डिप्रेशन की शाम भी ठीक वैसी ही होती जैसी और शामें

    शाम के रंग भी उतने ही हल्के होते और शामों की तरह

    4:55 पर ही सूर्यास्त होता उस दिन भी और शामों की तरह

    कपड़े भी सूखते रोज़ की तरह

    पक्षी भी कच...कच...कच... कर लौटते रोज़ की तरह

    एक सुंदर दिन-रात के बीच होती है

    एक डिप्रेशन भरी शाम

    लंबी बेचैनी थकान और घबड़ाहट लिए

    ऐसी शाम कोई पड़ोसन जाए जब अचानक

    और कहे : चलो चाय पीते

    बड़ी अच्छी चाय बनाती तुम

    डिप्रेशन का क्रम टूटता है तब...

    पड़ोसन चाय सुड़कती और बिस्कुट कुतरती हुई कहती

    कोई नहीं खाता उसके घर यह बिस्कुट

    कौन-सी पत्ती है ये

    टी.वी. नया लिया क्या

    ये कौन सा कलर है चप्पल का

    यही कुरती तो मधु के घर जाने में भी पहना था ना...

    मैं ऊब से टी.वी. चला देती हूँ

    वहाँ भी

    एक स्त्री बेक़ाबू होकर समाचार पढ़ती है

    कि एक बेक़ाबू बस गड्ढे में गिर गई

    डिप्रेशन की शाम अक्सर ऐसी ही होती बेक़ाबू

    बेक़ाबू स्त्री नहीं रखती

    अपना गर्म स्नेह भरा हाथ मेरे गले पर

    नहीं पूछती कोई हाल

    ना ही महसूस कराती शाम की गुनगुनाहट

    डिप्रेशन की शाम बहुत भारी होती

    सीने में कुछ धँसता रहता

    अपनी ही धड़कन की गति को गिना जा सकता है

    इस शाम नहीं बनते पकौड़े, हलुए, पास्ता और दूध वाली चाय

    इस शाम अक्सर खाती मारि गोल्ड बिस्कुट

    फीका बेस्वाद-सा

    यह बनाकर रखता डिप्रेशन के नैरंतर्य को

    डिप्रेशन की शाम कुछ ऐसी ही होती

    नींद अपने हाथ नहीं होती

    ज़िंदगी-मौत अपने हाथ नहीं होती

    प्रेम अपने हाथ नहीं होता

    डिप्रेशन की शाम अपने हाथ नहीं होती

    स्रोत :
    • रचनाकार : घुँघरू परमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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