अँधेरी यात्रा

andheri yatra

किशोर कल्पनाकांत

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अँधेरी यात्रा

किशोर कल्पनाकांत

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    आकारविहीन / घोर अँधेरा

    अंत पार

    यह निराकार-साकार से परे

    यही तो है अँधेरा-ही-अँधेरा!

    कैसे हो निर्भय जीवन का विश्वास?

    सोचे ही जाता बार-बार

    पर कहाँ से लाऊँ सुचिंतित चाँदनी के विचार?

    अँधेरा ही बन बैठा है जीवन का आधार

    चारों ओर पसरा है अँधेरे का परिवार

    अँधेरे के अणु-अणु के भीतर

    मैं ही / स्थापित किए जाता हूँ भय के निशान।

    आश्चर्य करता हूँ / क्यों रची गई अँधेरी रात ?

    डूबे ही जा रहा हूँ / अँधेर-घुप्प की अतल गहराइयों में

    रात के अँधेरे से अधिक भयावह है

    मन का अँधेरा / मुझे इस सर्वग्रासी अँधेरे से उबारो!

    कदाचित / यह रात होती मनमोहनी

    सुहानी / प्यार-पगी रात

    होती कितनी अच्छी बात!

    जब होती यह चाँदनी रात / भय के स्थान पर

    उपजती उजले-मन कोई जोड़ने वाली बात।

    खुली-बिखरी यह ज़िंदगी

    अँधेरी गुफ़ाओं के भीतर

    फाँक रही है नमक-ही-नमक

    अँधेरे का अनंत चक्रव्यूह!

    अँधेरे मार्गों पर / एकाकी यात्रा

    कहाँ है कोई जोड़ मात्रा

    कभी पाँव / रक्तकुंड में जा फँसें

    दिक्पालों के दैत्य भयावह हँसी हँसें

    कभी मांस के लोथड़ों पर

    फिसल-फिसल जाए पाँव / अँधेरा जग!

    भीतरी जलन तप उठती है

    लपट नहीं बनती, धुआँ ही धुआँ उठे!

    आशंकाओं के बल पर भय-भूत से डरकर पल्ला पसारे

    प्रलय मचेगी चिंतन के हारे!

    यह रात भय से लबालब भर गई है।

    काली कंबल तरबतर भीग गई है

    लेकिन यहाँ-कहाँ / कहीं-न-कहीं

    कोई उजास है ज़रूर!

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक भारतीय कविता संचयन राजस्थानी (1950-2010) (पृष्ठ 40)
    • संपादक : नंद भारद्वाज
    • रचनाकार : किशोर कल्पनाकांत
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2012

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