ज़िबहख़ाने
सदियों से रेते जा रहे बकरे
क्या ज़िबहबेला में अब भी करते होंगे प्रार्थना
क्या अब भी अंतिम बार घास खाते हुए
वे थोड़ी घास ईश्वर के लिए छोड़ देते होंगे
अब भी कहते होंगे कि
हे ईश्वर
आज क़साई के गड़ासे को
एक हरी लकड़ी के डंठल में बदल दो!
तब भी जब
दाँतों को गड़ासे की धार वाला वरदान
आज तक तथास्तु नहीं हुआ और
वे कभी क़साई का अँगूठा चबा नहीं पाए!
सफ़ेद खाल के
हरा या भगवा कर देने की अरदास भी
लंबित है सालों से
यह भी कि उनका शिकार शेर करे या भेडिया
उन्हें आदमी के हाथों
मरना एकदम पसंद नहीं
शिकार होना अलग बात है
खाल खिंचवाना अलग बात
अगर आज तक हलाल हुए बकरों की
अंतिम मिमियाहट को जोड़ दें
तो इतना नाद पैदा हो सकता है
कि कान के पर्दे फट जाने से
ईश्वर बहरा हो जाए!
इस मिमियाहट का अनुवाद
ईश्वर की भाषा में कौन-सा कवि करेगा!
हाथ न होने का दुख कितना बड़ा है
होता तो कसाइयों से मिला लेते
पर उनके पास सिर्फ़ गर्दन हैं
कितना भी गले लगो गड़ासे से
एक अहिंसक गला
गड़ासे का मन कभी नहीं बदल सकता!
वे गड़ासे का धर्म जानना चाहते हैं
और यह भी कि उसका ईश्वर
बकरों के ईश्वर से इतना शक्तिशाली कैसे है
बकरे किसी दूसरे ईश्वर की तलाश में
कभी चारमीनार की तरफ़ भागते हैं
कभी मंदिर वाली गली में
इन्हीं दोनों के बीच—
ज़िबहख़ाने हैं।
- रचनाकार : अखिलेश श्रीवास्तव
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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