शोले
वह बार-बार बताती है अपना नाम
बग़ैर पूछे भी
बार-बार पूछता है जय—
तुम्हारा नाम क्या है बसंती?
बसंती को आदत नहीं है बेफजूल बात करने की
उसके पास पड़े हुए हैं ढेर सारे काम
करना है अपनी आजीविका का ईमानदार उपाय
ध्यान रखना है मौसी और धन्नो का
ख़बर रखनी है रामगढ़ की एक-एक बात की
बचना है गब्बर की गंदी निगाह से
और टूटकर प्रेम भी तो करना है बिगड़ैल वीरू से।
अपनी रौ में बीत रहा है वक़्त
कब का उजड़ गया सिनेमा का सेट
संग्रहालयों में सहेज दिए गए पोस्टर
इतिहास की किताबों में
दर्ज हो गए घोड़े दौड़ाने वाले डकैत
टूट गई मशहूर जोड़ी भी सलीम-जावेद की
दोस्ती न तोड़ने की प्रतिज्ञा वाले गीत पड़ गए पुराने
और तो और अब कोई दुहाई भी नही देता नमक की।
उजाड़ हो गए जुबली मनाने वाले टॉकीज
घिस गईं पुरानी रीलें रगड़ खाकर
अब तो दर्शक भी बचे नहीं वे पुराने खेवे के
जो मार खाते ग़द्दार को देखकर
बजाते थे तालियाँ ज़ोरदार।
क्या करूँ
मुझे अब भी सुनाई देती है
एक बूढ़े की प्रश्नाकुल आवाज़
—इतना सन्नाटा क्यों है भाई?
अब भी रह-रह कर गुर्राता है कोई खलपात्र
—ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर!
सहसा काँप जाते हैं मोबाइल थामे मेरे हाथ
और रात में कई-कई बार उचट जाती है नींद भी बेबात।
- रचनाकार : सिद्धेश्वर सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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