अनेक फ़िल्में बनानी हैं
यहाँ एक डिब्बाबंद फ़िल्म को दिलों के पस्त सिनेमाघर में
फिर से लगाने की कोशिश जैसा कुछ है
संप्रति, एक डिस्ट्रीब्यूटर इस फ़िल्म को दुनिया की सबसे कम क़ीमत पर
ख़रीदने की पेशकश कर रहा है
इतनी क़ीमत पर सिर्फ़ पानी मिलता है
जिस फ़िल्म में गाने नहीं होते सितारे नहीं होते अँधेरे होते हैं
उसका सौदा पानी की तरह होता है
पसीने की क़ीमत पानी जितनी भी नहीं है
पसीने की कुछ भी क़ीमत नहीं होती है
अगर किसी के पास पसीना है तो इसकी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है
इस फ़िल्म में अँधेरे हैं पसीने हैं पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक ज़िले में लगातार उड़ती
ग़र्द है और अपने दौर की हिंसा से लड़ने वाला विवेक है
इस फ़िल्म के डायलॉग जिस भाषा में हैं उसे लोग अब समझ नहीं पाते इसके अभिनेता अपनी असल ज़िंदगी के चरित्रों की तरह पेश आते हैं इस फ़िल्म का साउंडट्रैक पिक्चरट्रैक के साथ क़ायदे से मिक्स नहीं है इसलिए दृश्य पहले दिख जाता है और दृश्य की आवाज़ें देर में सुनाई देती हैं फ़िल्म की नायिका इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ती है तो उस टूटन में पत्थर के सिवाय कुछ नहीं टूटता और उस टूटन की आवाज़ कुछ इतनी देर में सुनाई देती है कि लगता है 1961 से आज में आ रही है फ़िल्म का नायक कुर्ता पाजामा पहनता है और शायद इसी वजह से पूरे सूबे की पुलिस उसे घेरकर एक फ़्रेम में सैकड़ों गोलियाँ मारती है। गोलियों की आवाज़ बहुत बाद में आती है अब तक आ रही है और बहुत बाद तक आती है।
अस्सी के दशक के मुंबइया सिनेमा के मुख्यधारावाद ने फ़िल्म के संगीत को कुचलकर अश्रव्य बना दिया है इसलिए वॉल्यूम पूरा खोलने पर सुनाई देती स्पीकर की भाँय-भाँय को संगीत मानना होगा फ़िल्म में सच कहने के तमाम जोखिमों के दौरान पैसा कमाने की कुछ आगामी चतुराइयाँ फ़्रेमों में अमूर्त होकर मौजूद हैं
मसलन रोने के दृश्य में रोने की व्यथा के अलावा भी कुछ है
बलात्कार के दृश्य में बलात्कार की हिंसा के अलावा भी कुछ है
कचहरी के दृश्य में न्यायधीश के न्याय के अलावा भी कुछ है
इस डिब्बाबंद फ़िल्म के अनेक हिस्सों को देखते हुए भी नहीं देखा जा पाता और जो नहीं दिख रहा है उसको दिखाने के लिए अनेक ऐसी या कुछ दूसरी तरह की फ़िल्में बनाना दरकार है
- पुस्तक : फिर भी कुछ लोग (पृष्ठ 42)
- रचनाकार : व्योमेश शुक्ल
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2009
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