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अन्तरु आइगा

antaru aiga

श्यामसुंदर मिश्र 'मधुप'

और अधिकश्यामसुंदर मिश्र 'मधुप'

    जब तुमार ब्याहु भारत सन भा रहइ

    बड़े जी की रहउ

    बड़े जीवट की रहउ

    चाँदी-सी जरती रहउ

    सोने-सी बरती रहउ

    तुमार मुँहु माँजी लोटिया अस

    चम चम चम होति रहइ

    बडी नीकी लगती रहउ

    अब फीकी लागइ लागिउ

    तुम परी की धिया रहउ

    जन-जन की जिया रहउ

    चेतन ते जड़ तक

    सब की हिया रहउ

    जनतंत्र की बिया रहउ

    तुम खूबइ खेलाई गइउ

    खूबइ दुलराई गइउ

    रुठिउ तौ मनाई गयिउ

    तुमका साँचे मा ढला गवा

    मुँह मा मक्खनु मला गवा

    यह सब यहि की बदि कै भा

    तुम देस की सेवा करती रहउ

    जन-जन की बदिकै मरती रहउ

    बड़े दमखम की रहउ

    सबका दम भरती रहउ

    अपनी बदि कुछु करती रहउ

    फल-फूल कउन कहइ

    पातिउ चरती रहउ

    मुला,

    समय बीत

    तुम मा अन्तरु आइगा

    तुम ऐंठति गयिउ

    बररति गयिउ

    सबका छाँड़ि

    अपनिय सेवा करइ लागिउ

    आपनि मेवा

    खुदइ खाइ लागिउ

    सबका छाँड़ि

    अपनइ दमु भरइ लागिउ

    अपने पैसरमु का फलु

    खुदइ चखइ लागिउ

    आसमान मा चढ़इ लागिउ

    हमरे मन ते उतरइ लागिउ

    चाँदी ते गीलट होइ गइउ

    सोने ते सुबरु होइ गइउ

    राधा रहउ

    कुबरी होइ गइउ

    लम्बी-लम्बी रहउ

    का बताइ कौनी होइ गयिउ

    बत्तिस बरसनइ मा बौनी होइ गयिउ

    हमका आसा अबहूँ हइ

    गिर परी हउ

    फिरि उठिहउ

    अपने का संभरिहउ

    सुबह केरी भूली साम घर अइहउ

    फिरि चमकिहउ

    फिरि दमकिहउ

    फिरि तुमारि पूजा करिब

    फिरि तुमार दम भरिबि

    स्रोत :
    • पुस्तक : घास के घरउँदे (पृष्ठ 68)
    • रचनाकार : श्यामसुंदर मिश्र ‘मधुप’
    • प्रकाशन : आत्माराम एण्ड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली
    • संस्करण : 1991

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