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चाहे घूमूँ मैं सड़कों पर कोलाहल में

chahe ghumun main saDkon par kolahal mein

अनुवाद : मदनलाल मधु

अलेक्सांद्र पूश्किन

अन्य

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अलेक्सांद्र पूश्किन

चाहे घूमूँ मैं सड़कों पर कोलाहल में

अलेक्सांद्र पूश्किन

और अधिकअलेक्सांद्र पूश्किन

    चाहे घूमूँ मैं सड़कों पर कोलाहल में

    चाहे जाऊँ मैं गिरजे में भीड़ जहाँ पर,

    चाहे बैठूँ मस्त युवाजन की टोली में

    कुछ विचार तो सदा किए रहते मन में घर।

    मैं कहता हूँ ख़ुद से वर्ष उड़े जाते हैं

    लोग यहाँ पर हमको जितने पड़ें दिखाई,

    सबको ही तो जाना होगा यम के द्वारे

    और किसी की घड़ी निकट है अंतिम आई।

    चाहे देखूँ मैं बलूत को कहीं विज़न में

    यही सोचता—तुमने लंबा जीवन पाया

    मैं विस्मृत हो जाऊँगा, तुम बने रहोगे

    मेरे पिता-पितामह को ज्यों गया भुलाया।

    अगर किसी प्यारे बच्चे को सहलाता हूँ

    “विदा, विदा! —सोचा करता हूँ अपने मन में,

    रिक्त तुम्हारे लिए स्थान कर मैं चलता हूँ

    मुरझाना है मुझे, तुम्हें खिलना यौवन में।

    इसी तरह के भावों और विचारों में मैं

    अपना हर दिन ऐसे ही हर वर्ष बिताता,

    और इन्हीं के बीच मृत्यु के भावी क्षण का

    कब वह आएगा—ऐसा अनुमान लगाता।

    मेरा भाग्य कहाँ पर अंतिम क्षण लाएगा?

    कहीं युद्ध में, दूर सफ़र में या सागर में

    या कि अस्थियां मेरे तन की ठंडी-ठिठुरी

    पड़ी रहेंगी कहीं निकट घाटी के उर में?

    कहाँ गलेगा बिना चेतना के शव मेरा

    मेरे लिए समान सभी, कुछ फ़र्क़ न, अंतर,

    फिर भी अच्छा घर-आँगन के निकट रहे वह

    ऐसी मन की साध, हृदय यह कहे निरंतर।

    और कामना यही, क़ब्र के पास सदा ही

    हुमके यौवन, नाचे-गाए नित्य जवानी,

    उदासीनता भूल, मुक्त हो प्रकृति वहाँ पर

    करे वसंती रंग-छटा की चिर अगवानी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अलेक्सान्द्र पूश्किन चुनी हुई रचनाएँ (खंड-1) (पृष्ठ 27)
    • रचनाकार : अलेक्सान्द्र पूश्किन
    • प्रकाशन : प्रगति प्रकाशन, मास्को
    • संस्करण : 1982

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