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मेरे हिमाल के लिए

जहाँ हिमाल से दूर
शहर काट रहा होता है
रात को दिन की तरह
उम्दा टेक्नोलॉजी और
स्वयं को बेहतर दिखवाने की होड़ में
लाँघता है बैठे-बैठे
सफल होने के फ़ॉर्मूले
नेक्स्ट वीकेंड को जबरदस्त रोमांच से भरने के लिए करता रहता है प्लान
उसी समय उसका मन जूझता है
निरंतर उस जूते की तरह
जो महँगे शौक़ में ख़रीद तो लिया है
पर पैर के तलवों में बराबर चुभन
बनाए हुए है
काटता है उसको
इनफ़ीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स
चका-चौंध
बाज़ारवाद
और
पूँजी की माया में लिप्त भ्रम

उसी भेड़चाल
और रैट रेस से थोड़ा अलग-थलग
गाँव में
एक पिता सुबह-सुबह
घुघूत1, कफुआ2, गिणी3, टेपुल्लिया4

हाय!
पता नहीं किन-किन
पक्षियों और भौरों की गुनगुनाहट से साथ उठकर
गिलास भर चहा खाकर
हल और हौल5 जभाँधूत 6कुमथलों 7पर टिकाकर
दो बरस की
चेली8 को साथ में लेकर
छिड़कता है अपने खेतों में
पुश्तैनी भकारों9-फॉउलों 10में रखा अलौकिक ब्यू11 बोता है धरती के सीने में गेहूँ
न्योली12 की धुनों के साथ करता है
फसकबाजी
दबाता है होंठों
और दाँतों के बीच मधु का नरम डोज़

और
माँ
जो कि अभी पुनः माँ बनने वाली है
रोज़ धार चढ़ कर लाती है
एक पुसोलिया13 हरी घास
गोठ14 की धिनाली15 के लिए चुनती है
दुधिलपात16, बांजपात17 और सालम18

काटती लाती है अपने हिस्से का मांगा19 बतकों 20में निश्चिंत कहती है—
बुर जन मानि हाँ21
न्योली गाती हुई पहाड़ की छाती पर
उड़ेलती है
गोबर के दर्जनों भर डोके22 और फोड़ती डालती है अंसख्य
मिट्टी के डाले23 आने वाली
नई पीढ़ी के लिए

स्रोत :
  • रचनाकार : हिमांशु विश्वकर्मा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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