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जलकुंभी मार्ग-10

jalkumbhi maarg 10

अनुवाद : दिनेश चमोला

आचार्य ज़ौजी

आचार्य ज़ौजी

जलकुंभी मार्ग-10

आचार्य ज़ौजी

और अधिकआचार्य ज़ौजी

     

    गहन अँधकार में
    कीचड़ में
    जलकुंभी1 हिलती है।
    लहरों के साथ
    और उतराती है
    लहरों के साथ

    यह उत्पति
    नहीं होती है
    बिना प्रसव पीड़ा के

    एक नारियल का पत्ता
    लहरों में
    लहराता आता है
    बहाव में उतराता है
    और
    फिर यही नारियल का पत्ता

    एक ओर से
    जलकुंभी से टकराता है
    हालाँकि एक ओर मदिरा है
    उसे नहीं मिलता आराम
    कुछ ही क्षण में
    लहरें लील जाती हैं उसे
    वह फिर चली जाती है नीचे
    फिर नहीं उठती ऊपर

    फिर एक लहर तरंगायित होती है
    और जलकुंभी
    एक गज़ दूर ऊपर नज़र आती है

    ऊपर आने में उसे
    नहीं होता है विलंब
    पानी के भँवर से दिखाई देती हैं
    प्रकट होती हैं बत्तख़ें
    सैकड़ों बत्तख़ें और अकेली जलकुंभी

    उसे देते हैं धक्का
    मारते हैं ठोकर
    लेकिन
    ज़ोर-ज़ोर से फड़कते हैं होंठ
    और
    पहनते हैं उसके फूल

     

    स्रोत :
    • पुस्तक : समकालीन बर्मी कविताएँ (पृष्ठ 43)
    • संपादक : चन्द्र प्रकाश प्रभाकर 'मौतीरि'
    • रचनाकार : आचार्य ज़ौजी
    • प्रकाशन : इरावदी प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1994

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