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बुढ़ापे की ख़ुशी

buDhape ki khushi

अनुवाद : दिनेश चमोला

ड. वेटायी

ड. वेटायी

बुढ़ापे की ख़ुशी

ड. वेटायी

और अधिकड. वेटायी

    पके हुए बाल

    गिरते हुए दाँत

    झुर्रीदार देह

    और धुँधलाती आँखें

    शकुन हैं विनाश का

    नंगी होती पसलियाँ

    और कूब कमर की

    बहरेपन और

    कँपकँपाहट से

    उम्र पर बढ़ता जाता है दबाव

    मेरे जीवन में नहीं है

    कोई सुख और ख़ुशी

    प्रतीक्षा है मुझे

    केवल मृत्यु की

    कहती है वह बार-बार

    लेकिन

    जब आते हैं युवक

    सम्मान करने के लिए

    करते हैं सम्मान

    अपने से बड़ी किसी बुज़ुर्ग महिला का

    तैरती है ख़ुशी उसके भीतर

    खिल उठता है उसका हृदय

    फिर होती है संतुष्ट

    वह वृद्ध महिला

    और लंबे जीवन

    का देती है आशीर्वाद

    स्रोत :
    • पुस्तक : समकालीन बर्मी कविताएँ (पृष्ठ 99)
    • संपादक : चन्द्र प्रकाश प्रभाकर 'मौतीरि'
    • रचनाकार : ड. वेटायी
    • प्रकाशन : इरावदी प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1994

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