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अंत एक अंक का

ant ek ank ka

अनुवाद : दिनेश चमोला

भां:मौ ञोन्वै

भां:मौ ञोन्वै

अंत एक अंक का

भां:मौ ञोन्वै

और अधिकभां:मौ ञोन्वै

    मित्र और पड़ोसी आते हैं,

    चले जाते हैं।

    भीड़भाड़ और परेशानी में

    एक छोटे अँधेरे कमरे में

    लैंप की रोशनी के साथ-साथ

    मैं लेट जाता हूँ

    पीठ के सहारे

    मैं हिल नहीं सकता

    मेरा शरीर

    हो गया है ज़र्द और ख़ुश्क

    काम और ढलती उम्र के साथ

    कमज़ोर हो गई मेरी आँखें

    दृष्टि चली गई है

    दृष्टिबिंदु भी कहीं खो गया है

    हालाँकि

    तेज़ हो चली हैं मेरी सख़्त साँसें

    फिर भी मैं निश्चितता से

    हाँफता रहता हूँ

    मेरी पत्नी

    बैठ जाती है बिस्तर से सटकर

    दु:ख से

    देखती है एकटक

    आँसुओं की धारा बहाती है

    परेशान-सी

    कोशिश करती है।

    हृदय की आग बुझाने की

    मेरी छोटी बिटिया

    खड़ी रहती है

    दरवाज़े को थामे

    करती रही है चुप्पी की असफल कोशिश

    रोती है

    और पोंछती है आँसू

    मैं

    देना चाहता हूँ दिलासा

    अपनी पत्नी, बच्चों,

    खेतों और गाँव के लिए

    लेकिन मैं नहीं बटोर पाता हूँ

    बोलने की ताक़त

    कुछ कहने से पहले

    पूरी हो जाती है यात्रा

    लेकिन

    रास्ते चलते हुए

    जल जाती है बाती

    और मैं करता हूँ

    अपनी कहानी समाप्त।

    स्रोत :
    • पुस्तक : समकालीन बर्मी कविताएँ (पृष्ठ 96)
    • संपादक : चन्द्र प्रकाश प्रभाकर 'मौतीरि'
    • रचनाकार : भां:मौ ञोन्वै
    • प्रकाशन : इरावदी प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1994

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