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बोलता हूँ

bolta hoon

गार्गी मिश्र

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गार्गी मिश्र

बोलता हूँ

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    सपने में सीढ़ियों से उतरती तुम्हारी बे-आवाज़ पुकार में बोलता हूँ। एक अनजान शहर के अनजान बाग़ के पौधे को तुम्हारे ‘टटोलने’ में बोलता हूँ।

    कैसे लिखती हो तुम? एक खड़ी पाई के सदियों से खड़े रहने में बोलता हूँ। अभी-अभी बोला हूँ तुम्हारे बाएँ पाँव के अँगूठे पर लगी अधछूटी नेल पॉलिश में।

    तुम्हारे नाख़ून पर उभरे नक़्श मेरी लाचार भाषा का चेहरा हैं।

    उन तस्वीरों, चिट्ठियों में बोलता हूँ जो गुम जाने पर ही हासिल हुईं। तुम्हारी लापरवाह सँभाल में बोलता हूँ। तुम्हारे सीने में ज़ोर से धड़कते दिल पर तुम्हारी यक़ीन से डबडबायी आँखों से बोलता हूँ।

    हमारे दरमियान जो फ़ासला है उसे शहर का सबसे पुराना रफ़ूगर जानता है। खींची और दरकी हुई उस जगह पर चित्रकार का इनसोम्निया, पान खिलाने वाली बुढ़िया की हँसी, मेरी अजन्मी बेटी की हथेली पर सजी हिना और और एक पागल का गीत साँस ले रहा है।

    रफ़ू के लिए चुने गए सफ़ेद धागों की कसन में बोल रहा हूँ।

    सुनो!

    स्रोत :
    • रचनाकार : गार्गी मिश्र
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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