शरीर और फ़सलें, कविता और फूल
कमर जैसे कलाई टूट जाए
हिम्मत जैसे घड़ी फूट जाए
तबीयत
कछ नए ढंग से ख़राब हुई है
सोचने की इच्छा लगभग शराब हुई है
ज़रा अकेलापन
कि ख़याल में ग़र्क़
उम्र के वर्क़
उसी में धुँधले हैं
उजले हैं उसी में
सामने आते हुए दो हाथ
साथ-साथ सूखते दिख रहे हैं
एक वृक्ष एक नदी
नाव पर
लदी हुई बरात को
गीत नहीं सूझ रहा है
शाम का सारा समाँ
मल्लाह से जूझ रहा है
असभ्य संदेहों को सहलाऊँ
धूँधले-धुँधले दिनों को
धूप में घसीटूँ नहलाऊँ
बहलाऊँ
बरसों का उदास मन
रास्ते के हिसाब से
क़दम धरूँ
शरीर और फ़सलें
कविता और फूल
सब एक हैं
सब को बोना बखरना गोड़ना
पड़ता है
सत्य हो शिव हो सुंदर हो
आख़िरकार इन सबको
किसी न किसी पल
तोड़ना पड़ता है
जैसे काँटा
अचानक पाँव में गड़ता है
ऐसे हर कारण
समय में जाकर पड़ता है
किस क्षण
कौन-सा
उच्चाटन
वशीकरण मारण
या मरण का पनपा
सो मैं नहीं जानता
मगर कारणहीन
नहीं मानता मैं
किसी पल के पाँव को
वह लँगड़ा के चले
चाहे हिम्मत से जमा कर एड़ी
ज़िंदाबाद कारण के काँटे
संयोग की बेड़ी
ऊँचे से गिरती है जब धारा
तो धुँआ हो जाता है उसका पानी
बानी को तुम न
पत्थर पर कसा
तो धुआँ भी समझते उसका
असंभव को तश्तरी में पेश
तुम करो
संभव से ज़्यादा को
कलरव नहीं कहते
उसका अलग नाम है
शब्द अपनी गवाही देंगे
मगर उसके आगे
जो उनके पीछे तक देखता है
एक मौसम आ रहा है
दूसरा जा रहा है
मेरे मन में इन दिनों
कोई नहीं गा रहा है
क्योंकि मन
एक मैली कमीज़ है इन दिनों
सोच रहा हूँ
धुलने दे दूँ कहीं
या ख़ुद धो डालूँ
मगर कमीज़ एक ही है
और मौसम
खुले बदन दस मिनिट भी
बैठने का
नहीं
याने यह मौसम
मेरी क़लम से
एक भी गीत ऐंठने का नहीं है
जो दृश्य
सारे दृश्यों में अच्छा है
इन दिनों उसकी तरफ़
मेरे पीठ है
याने अदीठ एक घाव है
अच्छे से अच्छा दृश्य
मेरे लिए फ़िलहाल
सवाल नहीं उठता
उसे मेरे देख सकने का
वर्णन उसका
पर्यायवाची हो सकता है
कोरे बकने का
इसलिए
जो कह सकता हूँ इन दिनों
उस में न गाने का कुछ है
न मुस्काने का
ख़ाली शामों में
उसे पढ़ा-भर जा सकता है
उलझन भरी दृष्टि
उसके बाद गड़ाई जा सकती है
अँधेरापन समेटते हुए
आसमान पर
क्योंकि
विस्मृति की इच्छा-भर
बहती है
इन कविताओं के तल में
रोज़मर्रा का दुखी चेहरा
प्रतिबिंबित है इस जल में
ग़ोताज़न हैं इसमें छोटे सुख
दीर्घ दुख
चित लेटे हैं इसकी लहरों पर
पहरों बिना थके
पड़े रह सकते हैं
आप चाहें तो कह सकते हैं इसे
उनकी ज़्यादती
पानी के साथ
या कह सकते हैं
मेरी अनौपचारिकता
बानी के साथ
फूल को
बिखरा देने वाली हवा भी
कौन कहता है
कि चलनी नहीं चाहिए
समूचा जंगल
जला देने वाली आग भी
कौन कहता है
कि जलनी नहीं चाहिए
अरसे से
ऐसी एक हवा
मुझ पर चल रही है
जल रही है मुझ में
अरसे से एक ऐसी आग
और मैं उसकी सुंदरता को
समझने को कोशिश कर रहा हूँ
कभी अलकें दिखती हैं
इस सुंदरता की मुझे
तो कभी पलकें
साढ़िम और लचीली
बँधती नहीं हैं वह
मेरी बाँहों में
मगर झलकें ज़्यादा-ज़्यादा
मिलती हैं इसकी अब
पहले से
मैं खुला बैठा हूँ
हवा में और आग में
सपना नहीं था
कि एक ज़बर्दस्त निष्क्रियता भी
लिखी है भाग में
किस का ख़याल करूँ
सौभाग्य के इस पल में
बह रही है
विस्मृति की इच्छा भर
भीतर जब
मन के तल में
- पुस्तक : मन एक मैली क़मीज़ है (पृष्ठ 133)
- संपादक : नंदकिशोर आचार्य
- रचनाकार : भवानी प्रसाद मिश्र
- प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन
- संस्करण : 1998
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