Font by Mehr Nastaliq Web

भ्रम

bhram

मौलश्री कुलकर्णी

अन्य

अन्य

और अधिकमौलश्री कुलकर्णी

    आओ मेरे सब भ्रम तोड़ दो

    क्योंकि इन ज़ंजीरों को मैंने ही

    अब तक जकड़े रखा है

    और मैं फड़फड़ाती हूँ अपने पर

    इन भ्रम की ज़ंजीरों को

    और अधिक कसने के लिए

    जैसे चिड़ियाघर में हुक्कू बंदर

    पिंजरे में रहकर भी

    उछलता है, मटकता है, करतब भी दिखाता है,

    ताकि उसका मालिक रहने दे उसे,

    उसी पिंजरे में,

    मिलता रहे उसे,

    एक ठिकाना, पेट भर खाना

    और बना ही रहे वह हमेशा सबके लिए

    आकर्षण का केंद्र

    वह तो बंदर है—

    कम दिमाग़ वाला

    फिर भी जानता है

    अहमियत बँधे रहने की ज़ंजीरों में

    टिके रहने की उसी पिंजरे में सालों-साल

    मैंने तो अपने भ्रम भी ख़ुद ही बनाए हैं

    क्योंकि मैं तो इंसान हूँ

    उससे दस गुना विकसित

    सौ गुना समझदार

    हज़ार गुना उलझा हुआ...

    क्योंकि इतना आसान नहीं होता

    अपने मन को खुला छोड़ पाना

    मन तो हमेशा बँधना चाहता है

    किसी नाम से,

    किसी घटना से,

    किसी याद से,

    और जोड़ता ही जाता है—

    एक के ऊपर एक,

    हर बार नया भ्रम,

    हर नाम, हर घटना, हर याद से...

    जैसे इस क्षण मुझे भ्रम है कि तुम मेरे हो,

    और तुम आओगे मेरे सारे पुराने,

    घिसे-पिटे, दक़ियानूसी भ्रम, अपने सामीप्य से तोड़ने,

    और मिलकर बनाओगे मेरे साथ,

    हमारे साथ-साथ होने का भ्रम

    पर सुनो, तुम ऐसा करो,

    तुम मत आओ इस बार,

    मत उलझो मेरे ताने-बानों में,

    मत फँसो मेरी ज़ंजीरों में,

    मत बनो कठपुतली मेरे सपनों की,

    और तोड़ दो मेरे हर भ्रम की बुनियाद को,

    हमेशा-हमेशा के लिए...

    स्रोत :
    • रचनाकार : मौलश्री कुलकर्णी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY